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त्रयोविंशः सर्गः
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गोष्ठे गोपवधूधूतक्षुत्पिपासापरिश्रमः । उषित्वा प्रातरुत्थाय स प्रायाइक्षिणां दिशम् ॥२५॥ पुरं गिरितट तत्र वप्रप्राकारवेष्टितम् । दृष्टा हृष्टः प्रविष्टोऽसौ विशिष्टजनतावृतम् ॥२६॥ वेदाध्ययन नि?षमुखरीकृतदिग्मुखे । तत्रापृच्छ सरं कंचिदिति शौरिः सकौतुकः ॥२७॥ किं केनात्र महादानं माहनेभ्यः' प्रवर्तितम् । येनामी मिलिता विश्वे मेदिन्या वेदवेदिनः ॥२८॥ सोऽवोचद्वसुदेवोऽत्र मोजकोऽस्यास्ति कन्यका । सोमश्रीरिव सोमश्रीः कलावेदविशारदा ॥२९॥ जेता वेदविचारेऽस्याः यः स भर्ता भविष्यति । इति दैवज्ञवाक्येन संहता वैदिकी प्रजा ॥३०॥ जघनस्तनमारा" तनुमध्यातिरूपिणी । भरक्षमस्य नो विद्मः कस्योपरि पतिष्यति ॥३१॥ श्रुत्वैवं शब्दमात्रेण सा कन्या श्रोत्रहारिणी । हंसीव राजहंसस्य चक्रे सोस्कण्ठितं मनः ॥३२॥ ब्रह्मदत्तमुपाध्यायं सोऽभ्युपेत्य निवेद्य च । गोत्रसंचारणं वेदानहोऽध्यापय मामिति ॥३३॥ आषांस्त्वमिह किं वेदान् धर्मानविजिगांससे । अनार्षानथवा वेदानित्यवादीदसौ गुरुः ॥३४॥ कथं वैविध्यमेतेषामिति पृष्टोऽवदत्पुनः । प्रहृष्टहृदयोऽत्यर्थ यथार्थवचनो द्विजः ॥३५॥ षटकर्मसु प्रजाः प्राप्ताः कल्पवृक्षपरिक्षये। यः शशास पुरा वेदेत्रिमिवर्णरिवाश्रिताः ॥३६॥
हिमविन्ध्यस्तनामोगा रौप्यपर्वतहारिणीम् । वार्धिकाचीगुणां राजा योऽन्वभूद्वसुधावधूम् ॥३७॥ शरीर धारण करनेवाला नीच नीलकण्ठ था । उसके द्वारा स्त्रीके हरे जानेपर वसुदेव विह्वल होकर वनमें घूमते रहे ॥२४॥ वह भूखे थे इसलिए गोपोंकी एक बस्ती में गये वहाँ गोपोंकी स्त्रियोंने उनकी भूख-प्यासकी बाधा तथा परिश्रमको दूर किया। उस बस्तीमें रातभर रहकर वे प्रातःकाल दक्षिण दिशाकी ओर चल दिये ॥२५॥ वहाँ धूलिकुट्टिम तथा प्राकारसे वेष्टित गिरितट नामक नगरको देखकर वसुदेवने हर्षित हो उसमें प्रवेश किया। उस समय वह नगर विशिष्ट जनसमूहसे व्याप्त था तथा वेद-पाठकी ध्वनिसे उसकी समस्त दिशाएँ शब्दायमान हो रही थीं। वहाँ कौतुकसे भरे वसुदेवने किसी मनुष्यसे इस प्रकार पूछा ॥२६-२७|| क्या यहाँ ब्राह्मणोंके लिए किसीने महादान किया है ? जिससे वेदोंको जाननेवाले पृथिवीके समस्त ब्राह्मण यहां आकर इकट्ठे हुए हैं ॥२८॥ उस मनुष्यने कहा कि यहां एक वसुदेव नामक ब्राह्मण रहता है। उसके एक सोमश्री नामको कन्या है जो चन्द्रमाके समान सुन्दर और अनेक कला तथा वेद-शास्त्रमें निपुण है ॥२९॥ ज्योतिषीने कहा है कि जो इसे वेदोंके विचारमें जीत लेगा वही इसका पति होगा इसीलिए यह वेदोंको जाननेवाली प्रजा इकट्ठी हुई है ॥३०॥ स्थूल नितम्ब और स्तनोंके भारसे पीड़ित, कमरकी पतली यह अतिशय सुन्दरी कन्या, भार धारण करने में समर्थ किस भाग्यशालीके ऊपर गिरती है यह हम नहीं जानते ॥३१॥ यह सुनकर जिस प्रकार शब्दमात्रसे कानोंको हरनेवाली हँसी राजहंसके मनको उत्कण्ठित कर देती है उस प्रकार चर्चामात्रसे कानोंको हरनेवाली उस कन्याने वसुदेवके मनको उत्कण्ठित कर दिया ॥३२॥
_____ तदनन्तर कुमारने ब्रह्मदत्त नामक उपाध्यायके पास जाकर तथा उसे अपना गोत्र बताकर प्रार्थना की कि आप हमें वेद पढ़ा दीजिए ॥३३॥ इसके उत्तरमें ब्रह्मदत्तने कहा कि यहाँ तुम धर्मको प्रकट करनेवाले आषं वेदोंको पढ़ना चाहते हो या अनार्ष वेदोंको ? ॥३४॥ यह सुन कुमारने फिर पछा कि दो वेद कैसे? कुमारके इस तरह पूछनेपर अत्यन्त प्रसन्न चित्त एवं यथार्थवादी उपाध्याय पुनः इस प्रकार कहने लगा कि युगके आदिमें कल्पवृक्षोंके नष्ट होनेपर जिन्होंने शरणागत प्रजाको असि-मषि आदि छह कार्योंका उपदेश दिया था तथा अपने पूर्वज्ञानके आधारपर उनमें क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णोंका विभाग किया था ।।३५-३६॥ जिन्होंने राजा बनकर हिमाचल और १. ब्राह्मणेभ्यः क.। माहवेभ्यः म.। २. सोमस्येव चन्द्रस्येव श्रीर्यस्याः सा। ३. वैदिकप्रजाः ग.। ४. नाहाध्यापय मामिति क. । ५. रौप्यपर्वत एव हारो यस्याः सा ताम् ।
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