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हरिवंशपुराणे
पादमस्तकपर्यन्तान्निरूपयावयवान्यतेः । सशिरःकम्पमाहासौ महाविस्मयसंगतः ।। १६३॥ तिलमात्रोऽपि देहस्य नेक्ष्यतेऽवयवो मुनेः । सामुद्रया सुदृष्ट्या यः शुद्धया परिदूष्यते ॥ ११४॥ तिष्ठत्वन्यदिहामुष्य सल्लक्षणकदम्बकम् । राज्यं सौभाग्यमप्याह मधुपिङ्गलनेत्रता ।। ११५।। ईदृग्लक्षणयुक्तोऽपि यदयं नवयौवने । परिभ्रमति मिक्षार्थी तद्दिक् सामुद्रशास्त्रकम् ॥ ११६॥ यद्येष दग्धदैवेन कदर्थयितुमर्थितः । तस्किमर्थमनिन्द्येन लक्षणौघेन चर्चितः ॥११७॥ अथवा दुःखभीरुत्वान्न स्पृशन्ति सुखैषिणः । फलितामपि दुष्पाकां विषवल्लीमिव श्रियम् ||११८|| शुभलक्षणपूर्णस्य पुनः शुद्धान्वयस्य हि । युज्यते क्षपतोऽमुष्य मुमुक्षोदक्षया धृतिः ॥ ११९॥ सामुद्रिकवचः श्रुत्वा नरः कश्चिदुवाच तम् । किं सामुद्रिकवार्त्तास्य न श्रुता विश्रुतावनी ॥१२०॥ मिलितैः खलभूपालैः सुलसायाः स्वयंवरे । चक्षुर्लक्षणहीनोऽयमिति संसदि दूषितः ॥ १२१ ॥ यथैव सूचकः पुंसां पृष्ठमांसस्य खादकः । निन्दितः स्वप्रशंसी च तथैव किल पिङ्गलः ॥ १२२ ॥ परप्रमाणको मुग्धो मत्वात्मानमलक्षणम् । मधुपिङ्गः शुमाक्षोऽयं विलक्षस्तपसि स्थितः ॥ १२३॥ प्रमादालस्यदर्पेभ्यो ये स्वतो नागमेक्षिणः । ते शदैविप्रलभ्यन्ते दृष्टादृष्टार्थगोचरे ॥ १२४॥ स्वयंवरे नरश्रेष्ठः कन्यया सगरो वृतः । वृतः क्षत्रमूहेन मोगासकोऽवतिष्ठते ॥ १२५ ॥
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धारी मधुगलको एक सामुद्रिकशास्त्रीने देखा ॥ ११२ ॥ वह पैरसे लेकर मस्तक तक मुनिराजके समस्त अवयवों को देखकर बहुत भारी आश्चर्य में पड़ गया और शिर हिलाता हुआ कहने लगा कि इन मुनि शरीरमें तिल बराबर भी ऐसा अवयव नहीं दिखाई देता जो सामुद्रिक शास्त्रको शुद्ध दृष्टिसे दूषित किया जा सके अर्थात् जिसमें सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार दोष बताया जा सके ||११३-११४|| इनके शरीर में जो उत्तमोत्तम अन्य लक्षणोंका समूह है वह तो एक ओर रहे एक नेत्रोंकी पोलाई ही इनके राज्य तथा सौभाग्यको सूचित कर रही है ।। ११५|| क्योंकि ऐसे लक्षणोंसे युक्त होनेपर भी जब यह नयो जवानीमें भिक्षा के लिए इधर-उधर भ्रमण कर रहा है तब ऐसे सामुद्रिक शास्त्रको धिक्कार हो ||११६ || यदि दुर्देव इसे पीड़ित ही करना चाहता है तो फिर निर्दोष लक्षणोंके समूहसे इसे युक्त क्यों किया ? ॥ ११७ ॥ अथवा यह भी हो सकता है कि जो मनुष्य सुख की इच्छा रखते हैं वे दुःखसे भयभीत होनेके कारण फलोंसे लदी किन्तु खोटा फल देनेवाली विष लता के समान प्राप्त हुई लक्ष्मीको छूते भी नहीं ॥। ११८ || यथार्थ में यह मुनि शुभ लक्षणोंसे पूर्णं और शुद्ध कुलका है तथा मोक्षकी इच्छासे तप कर रहा है इसलिए इसका दीक्षा द्वारा सन्तोष धारण करना युक्त ही है ॥ ११९॥
सामुद्रिक के उक्त वचन सुनकर किसी मनुष्यने उससे कहा कि क्या आपने इसके सामुद्रिक शास्त्रकी बात सुनी नहीं ? वह तो समस्त पृथिवो में प्रसिद्ध है || १२० || सुलसा के स्वयंवर में इकट्ठे हुए दुष्ट राजाओंने 'यह नेत्रके लक्षणोंसे हीन है' यह कहकर इसे सभामें दूषित ठहराया था || १२१ ।। उस समय कहा गया था कि जिस प्रकार पीठ पीछे दूसरेकी बुराई करनेवाला चुगल और अपनी प्रशंसा स्वयं करनेवाला मनुष्य निन्दित है उसी प्रकार यह पिंगल भी निन्दित है - दोपयुक्त है || १२२|| यह मधुपिंगल भोला-भाला था तथा दूसरोंको प्रमाण मानता था इसलिए शुभ नेत्रोंका धारक होनेपर भी अपने आपको अशुभ लक्षणवाला मान बैठा और लज्जित हो तप करने लगा || १२३ || ठीक ही है जो मनुष्य प्रमाद, आलस्य और अहंकार के कारण स्वयं शास्त्रों को नहीं देखते हैं वे देखे-अनदेखे पदार्थों के विषय में धूर्तों के द्वारा ठगे जाते हैं ||१२४ || मधुपिंगलके चले जानेपर कन्याने स्वयंवर में राजा सगरको वर लिया जिससे वह क्षत्रियों के समूहसे घिरा भोगों में आसक्त है ॥ १२५ ॥
१. क्षपितेऽग । क्षिपितेऽ ङ । ऽन्नयतो ख. । २. वृतक्षत्र - म. ।
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