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हरिवंशपुराणे
मातङ्ग इति मा मंस्था त्वं हिरण्यवतीत्यहम् । कल्पो मातङ्गविद्यायाः शौरेऽयं कार्यसाधनः ॥१३०॥ सेयं स्वा नाप्तितो म्लाना वाला चेतोमलिम्लुचम् । बाला वष्टि दृढं नेतुं बाहुपाशेन बन्धनम् ॥१३॥ तमित्युक्त्वान्तिकं प्रातां सा नीलयशसं जगी। वल्लभः स्पृश सोऽयं ते करेण करपल्लवम् ॥१३२॥ साऽनुज्ञाता करेणास्य प्रस्विन्नावयवा करम् । प्रसारिताङ्गलिं बाला स्वेदिनस्तादृशाऽग्रहीत् ॥१३॥ तयोः प्रेमतरुः सिक्तस्तनुस्पर्शसुखाम्भसा । रोमाञ्चव्यपदेशेन व्यमुचत् 'कर्कशाङ्कुरान् ॥१३॥ पाणिग्रहणमाचं हि तदेवासीत्तदा तयोः । भावाद्रकृतयोः पश्चाद्भाविता व्यावहारिकम् ॥१३५॥ सद्यो विद्याधरीवृन्दं खमुत्पत्य ततोऽखिलम् । शोरिणा सह संहृष्टमुत्तर दिशमुद्ययौ ॥१३६॥ भूषौषधिप्रभापिण्डखण्डितध्वान्तसन्ततिः । रेजे खे खेचरस्त्रीणां संहतिस्तडितां यथा ॥१३७॥ सदा शौरिरिवार्कोऽपि करसम्पर्कमात्रतः । प्राग्नीलाशावधूवक्त्रमकरोत् प्रभयोज्ज्वलम् ॥१३॥ अोदितो बभौ भानुः पाटलः प्राग्वधूमुखे । दिवसस्य स्फुरद्वाढमर्धदष्ट इवाधरः ॥१३६॥ सर्वोदितमभात्प्राच्या मुखमण्डलमण्डनम् । मार्तण्डमण्डलं यद्वत्सौवर्ण कर्णकुण्डलम् ॥१४॥ रविणा शौरिणेवाशु भुवनद्योतकारिणी । द्यावापृथिव्यौ विस्पष्टे द्राग दृष्टिप्रसरे कृते ॥१४१॥ शौरि हिरण्यवत्याह महारण्यनगावृतम् । अधः पश्यसि यं भूमौ कुमार ! गिरिमुलतम् ॥१४२॥ श्रीमन्तं प्रवदन्तीम हीमन्तं नामतो गिरिम् । तप:श्रीमन्तमाधत्ते लोकं हीमन्तमप्ययम् ॥१४॥
करनेके लिए मातङ्ग विद्याके प्रभावसे यह वेष रक्खा था ॥१३०॥ यह कहकर उसने पासमें बैठी नीलंयशाकी ओर संकेत कर कहा कि देखो यह वही बाला नीलंयशा है जो हृदयको चुरानेवाले आपको न पाकर मुरझा गई है। यह वाला आपको अपने बाहुपाशसे बाँधना चाहती हैआपका आलिङ्गन करना चाहती है ।।१३१।। कुमारसे इतना कहकर हिरण्यवतीने पासमें बैठी हुई नीलंयशासे भी कहा कि यही तेरा वह स्वामी है अपने हाथसे इसके हस्त पल्लवका स्पर्श कर ॥१३२।। इस प्रकार हिरण्यवतीकी आज्ञा पाकर कुमारी नीलंयशाने कुमार वसुदेवके फैलाये हुए हाथको अपने हाथसे पकड़ लिया । उस समय एक दूसरेके स्पर्शसे दोनोंके शरीरसे पसीना छूट रहा था ॥१३३॥ उन दोनोंका प्रेमरूपी वृक्ष शरीरके स्पर्शजन्य सुखरूपी जलसे सींचा गया था इसलिए वह रोमाञ्चके बहाने कठोर अङ्कुरोको प्रकट कर रहा था ।।१३४॥ वे दोनों ही स्नेहसे आर्द्रचित्त थे इसलिए उनका प्रथम पाणिग्रहण उसी समय हो गया था और व्यावहारिक पाणिग्रहण पीछे होगा ॥१३५।। तदनन्तर हर्षसे भरा विद्याधरियोंका समस्त समूह शीघ्र ही कुमार वसुदेवके साथ आकाशमें उड़कर उत्तर दिशाकी ओर चल दिया ॥१३६॥ आभूषण तथा
औषधियोंकी प्रभासे अन्धकारको सन्ततिको नष्ट करता हुआ वह विद्याधरियोंका समूह आकाशमें बिजलियोंके समूहके समान सुशोभित हो रहा था ॥१३७॥ उस समय जिस प्रकार कुमार वसुदेवने हाथके स्पर्शमात्रसे नीलंयशाके मुखको प्रभासे उज्ज्वल कर दिया था उसी प्रकार सूर्यने भी अपनी किरणोंके स्पर्श मात्रसे पूर्व दिशारूपी स्त्रीके मुखको प्रभासे उज्ज्वल कर दिया था ।।१३८॥ उस समय पूर्व दिशाके अग्रभागमें आधा उदित हुआ लाल-लाल सूर्य ऐसा जान पड़ता था मानो दिवसरूपी युवाके द्वारा आधा डसा हुआ पूर्व दिशारूपी स्त्रीका लाल अधर ही हो ॥१३६॥ थोड़ी देर बाद जब सूर्यमण्डल पूर्ण उदित हो गया तब ऐसा जान पड़ने लगा मानो पूर्व दिशारूपी स्त्रीके मुखमण्डलको अलंकृत करनेवाला सुवर्णमय कानोंका कुण्डल ही हो ॥१४०॥ कुमार वसुदेवके समान संसारको प्रकाशित करनेवाले सूर्यने जब शीघ्र ही आकाश और पृथिवीको स्पष्ट कर दिया तथा उनकी ओर शीघ्र ही दृष्टिका प्रसार होने लगा ॥१४१॥ तब हिरण्यवतीने वसुदेवसे कहा कि हे कुमार ! नीचे पृथिवीपर महावनके वृक्षोंसे घिरे हुए जिस उन्नत पर्वतको देख रहे हो उस शोभासम्पन्न पर्वतको लोग हीमन्त गिरि कहते हैं। यह पर्वत लज्जासे युक्त मनुष्यको भी ।
१. कर्कराङ्कुरान् म० । २. समूहः । ३. समूहः ।
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