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हरिवंशपुराणे नमोऽस्तु नमिनाथाय नतत्रिभुवेनेशिने । यस्येदं वर्तते तीथं सांप्रतं भरतावनौ ॥३७॥ अरिष्टनेमिनाथाय भविष्यत्तीर्थकारिणे । हरिवंशमहाकाशशशाङ्काय नमो नमः ॥३८॥ नमः पार्श्वजिनेन्द्राय श्रीवीराय नमोऽस्तु ते । सर्वतीर्थङ्कराणां च गणेन्द्रेभ्यो नमः सदा ॥३९॥ कृत्रिमा कृत्रिमेभ्यश्च सदनेभ्योऽहंतां नमः । भवनत्रयवर्तिभ्यः प्रतिबिम्बेभ्य एव च ॥४॥ इत्थं कृत्वा स्तवं मक्या तौ प्रहृष्टतनूरुहौ । प्रणेमतुः शिरोजानुकरस्पृष्टधरातली ॥४१॥ पूर्ववत्पुनरुत्थाय कायोत्सर्जनयोगतः । पुण्यं पञ्चगुरुस्तोत्रमुदे चीचरतामिति ॥४२॥ अहंद्यः सर्वदा सर्वसिद्धेभ्यः सर्वभमिषु । आचार्यभ्य उपाध्यायसाधुभ्यश्च नमो नमः ॥४३॥ परीत्य जिष्णुधिष्ण्यं तौ रथमारुह्य हारिणौ । प्रविष्टौ दम्पती चम्पां संपदा परया ततः ॥४४॥ नर्तकीप्रेक्षणक्षिप्तचक्षरिङ्गितलक्षितः । स तां प्रणाममात्रेण मानिनीमनयदशम् ॥४५॥ विपक्षप्रेक्षणासक्तिसापराधेऽपि भर्तरि । स्त्रीणां प्रणयकोपस्य प्रणामो हि निवर्तकः ॥४६॥ अथ विद्याधरी वृद्धा वृद्धा विद्येत्र रूपिणी । तत्कन्य यान्य दोत्सृष्टा त्रिपुण्डकृतमण्डना ॥४७॥ एकान्ते सुस्थितं हयें कथंचिञ्चित्तहारिणी। दत्ताशीः शौरिमाहेवमालीना संमुखासने ॥४८॥
पुराणवस्तुनो वीर ! विस्तरस्तव चेतसि । शुद्धादर्शतले यद्वद् यद्यपि प्रतिभासते ॥४१॥ आपको नमस्कार हो, हे मुनिसुव्रतनाथ ! आपको नमस्कार हो ॥३६।। जिन्हें तीन लोकके स्वामी सदा नमस्कार करते हैं और इस समय भरत क्षेत्रमें जिनका तीर्थ चल रहा है उन नमिनाथ भगवान्के लिए नमस्कार हो ॥३७॥ जो आगे तीर्थकर होनेवाले हैं तथा जो हरिवंशरूपी महान् आकाशमें चन्द्रमाके समान सुशोभित होंगे उन अरिष्टिनेमिको नमस्कार हो ॥३८॥ श्रीपार्वजिनेन्द्रके लिए नमस्कार हो, श्रीवर्धमान स्वामीको नमस्कार हो, समस्त तीर्थंकरोंके गणधरोंको नमस्कार हो. श्रीअरहन्त भगवान के त्रिलोकवर्ती कृत्रिम अकृत्रिम मन्दिरों तथा प्रतिबिम्बोंके लिए नमस्कार हो॥३९-४०|| इस प्रकार स्तवन कर भक्तिके कारण जिनके शरीरमें रोमांच उठ रहे थे ऐ वसुदेव तथा गान्धर्वसेनाने मस्तक, घुटने तथा हाथोंसे पृथिवीतलका स्पर्श करते हुए प्रणाम किया ॥४१॥ तदनन्तर पहलेके समान खड़े होकर कायोत्सर्ग किया और पुण्यवर्धक पंच नमस्कार मन्त्रका उच्चारण किया ॥४२॥ पंच नमस्कार मन्त्र पढ़ते हुए उन्होंने कहा कि अरहन्तोंको सदा नमस्कार हो, समस्त सिद्धोंको नमस्कार हो, और समस्त पृथिवीमें जो आचार्य, उपाध्याय तथा साधु हैं उन सबके लिए नमस्कार हो ॥४३॥ अन्तमें जिन-मन्दिरकी प्रदक्षिणा देकर सुन्दर शरीरके धारक दोनों दम्पति रथपर सवार हो बड़े वैभवके साथ चम्पापुरीमें प्रविष्ट हए ।।४४। नत्यकारिणीको देखते समय कुमार वसुदेवके नेत्रोंमें जो विकार हुआ था वह गान्धर्वसेनाको दृष्टिमें आ गया था इसलिए वह उनसे मान करने लगी थी परन्तु कुमारने प्रणाम कर उसे वश कर लिया।॥४५।। सो ठीक ही है क्योंकि सपत्नीक देखने में आसक्ति होनेसे पतिके सापराध होनेपर भी हाथ जोड़कर किया हुआ नमस्कार स्त्रियोंके मानको दूर कर देता है ॥४६॥
अथानन्तर किसी समय कुमार वसुदेव महलके एकान्त स्थानमें अच्छी तरह बैठे थे कि उस नृत्य करनेवाली कन्याके द्वारा भेजी हुई एक वृद्धा विद्याधरी उनके पास आयी। वह वृद्धा त्रिपुण्डाकार तिलकसे सुशोभित थी, कुमार वसुदेवके चित्तको हरनेवाली थी. और मूर्तिमती वार्धक्य विद्याके समान जान पड़ती थी। उसने आते ही कुमारको आशीर्वाद दिया और सामनेके आसनपर बैठकर कुमारसे इस प्रकार कहना शुरू किया ।।४७-४८॥ हे वीर ! यद्यपि आपके हृदयमें शुद्ध दर्पणतलके समान पुराणोंका विस्तार प्रतिभासित हो रहा है तथापि मैं विद्याधरोंसे १. नमस्त्रिभुवने सदा ख., ग., घ., ङ. । नमितस्त्रिभुवने सदा म. । २. -मुदरीरचतामिति म. । ३. जिनगृहम् । ४. वसुदेवम् ।
से कुमार
पा
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