________________
हरिवंशपुराण
वैपवैणिकचैष कुतुपः परिभाषितः । उद्यमाधममध्याभिः स्थितः प्रकृतिभिर्युतः ॥१३॥ कुतुपेषु यथास्थानं सुप्रयुक्तं प्रयोक्तृभिः । अलातचक्रप्रतिमं गानं वाद्यं च नाटकम् ॥१४॥ रसामिनयभावानामभिव्यक्ति सुनर्त्तकी । सा कुर्वाणा रथस्थेन शौरिणैक्षि सजानिना ॥१५॥ रूपविज्ञानपाशेन तं बबन्धाशु सा स ताम् । बन्धव्यबन्धकत्वं तावन्योन्यस्य तदापतुः ॥ १६ ॥ ततो गान्धर्वसेनाभूदीर्ष्याकुञ्चितलोचना । विपक्षस्य हि सांनिध्य मक्षिसंकोचकारणम् ॥१७॥ सापायमत्र वित्रास कोपायं च चिरस्थितम् । मन्वाना सारथिं साह धन्विनो रथिनः प्रिया ॥१८॥ क्षिप्रमस्मात्प्रदेशात्त्वं रथं प्रेरय सारथे । शर्कराप्यलमास्वादान्नाददाति रसान्तरम् ॥१९॥ इत्युक्त नोदय द्वेगसारथी रथमाप सः । जिनवेश्म तमास्थाप्य तौ प्रविष्टौ प्रदक्षिणम् ॥ २० ॥ क्षीरेक्षुरसधारौधैर्धृ तदध्युदकादिभिः । अभिषिच्य जिनेन्द्राचमर्चितां नृसुरासुरैः ॥ २१ ॥ हरिचन्दनगन्धाढ्यैर्गन्धशाल्यक्षताक्षतैः । पुष्पैर्नानाविधैरुद्वैधूपैः कालागुरुद्भवैः ॥२२॥ दीपैर्दीप्रशिखाजालैर्नैवेद्यैर्निरवद्यकैः । तावानर्चतुरचा तामर्चनाविधिकोविदौ ॥ २३ ॥ समपादौ पुरः स्थित्वा जिनार्चनकृताञ्जली । उच्चार्योपांशु पाठेन प्रागोर्या पथदण्डकम् ॥२४॥ नृत्य करनेवाले कुतुप उत्तम, मध्यम और जघन्य प्रकृतिके साथ युक्त थे। इनमें जो अच्छे-अच्छे प्रयोग दिखलानेवाले थे वे यथास्थान अलातचक्र के समान - व्यवधानरहित गायन-वादन और नर्तनके प्रयोग दिखला रहे थे ॥१२- १४ || इस प्रकार रस, अभिनय और भावोंको प्रकट करनेवाली उस नर्तकीको प्रिया गान्धवंसेनाके साथ रथपर बैठे हुए कुमार वसुदेवने देखा || १५ || देखते ही उस नर्तकीने कुमारको और कुमारने उस नतंकी को अपने-अपने रूप तथा विज्ञानरूपी पाशसे शीघ्र ही बाँध लिया । उस समय वे दोनों ही आपस में बन्धव्य और बन्धक दशाको प्राप्त हुए थे अर्थात् एक-दूसरेको अनुरागरूपी पाशमें बाँध रहे थे ||१६|| यह देख गान्धर्वसेनाने अपने नेत्र ईर्ष्या से संकुचित कर लिये सो ठीक ही है क्योंकि विरोधीका सन्निधान नेत्र संकोचका कारण होता ही है ॥ १७॥ 'यहाँ अधिक ठहरना हानिकर एवं भयको उत्पन्न करनेवाला है' ऐसा मानती हुई गान्धर्वसेनाने सारथीसे कहा कि हे सारथे ! तुम इस स्थान से शीघ्र ही रथ ले चलो क्योंकि शक्कर भी अधिक खानेसे दूसरा रस नहीं देती ।।१८ - १९ ।। गान्धवंसेनाके ऐसा कहनेपर सारथीने रथको वेगसे बढ़ाया और सब जिनमन्दिर जा पहुँचे । वहाँ रथको खड़ा कर वसुदेव और गान्धर्वसेनाने मन्दिरमें प्रवेश किया, तीन प्रदक्षिणाएँ दीं और दूध, इक्षुरसको धारा, घी, दही तथा जल आदिके द्वारा मनुष्य, सुर एवं असुरोंके द्वारा पूजित जिनेन्द्र देवकी प्रतिमाका अभिषेक किया ॥ २० - २१ ॥ । दोनों ही पूजाकी विधिमें अत्यन्त निपुण थे इसलिए उन्होंने हरिचन्दनको गन्ध, धानके सुगन्धित एवं अखण्ड चावल, नाना प्रकारके उत्तमोत्तम पुष्प, कालागुरु, चन्दनसे निर्मित उत्तम धूप, देदोप्यमान शिखाओंसे युक्त दीपक और निर्दोष नैवेद्यसे जिन प्रतिमाकी पूजा की ।। २२-२३॥ पूजाके बाद वे सामायिकके लिए उद्यत हुए सो प्रथम ही दोनों पैर बराबर कर जिनप्रतिमा के आगे हाथ जोड़कर खड़े हो गये । तदनन्तर ईर्यापथ दण्डका मन्द स्वर से उच्चारण कर कायोत्सर्ग करने लगे । कायोत्सर्गके द्वारा उन्होंने ईर्यापथ शुद्धि की । तत्पश्चात् १. नटपेटक (ग. टि. ) । २. नटपेटकेषु ( ग. टि ) | ३. -मास्वाद्य नाददति म । ४. उपांशु इत्यप्रकाशोच्चारणरहरस्ययोः । ५ प्रयोगस्त्रिविधो ह्येषां विज्ञेयो नाटकाश्रयः । ततं चैवावनद्धं च तथा नाट्यकृतश्च सः ॥ ३ ॥ तते कुतपविन्यासो गायनः सपरिग्रहः । वैपञ्चिको वैणिकश्च वंशवादक एव च ||४|| मार्दङ्गिकः पाणविकस्तथा दार्दुरिको बुधैः । अनाविद्धविधावेष कुतपः समुदाहृतः ॥ ५ ॥ उत्तमाधममध्याभिस्तथा प्रकृतिभिर्युतः । कुतपो नाट्य योगेऽत्र नानादेशसमाश्रयः ॥ ६ ॥ एवं गानं च नाट्यं च वाद्यं च विविधाश्रयम् । अलातचक्रप्रतिमं कर्तव्यं नाट्ययोक्तृभिः ॥७॥ - नाट्यशास्त्र, अध्याय २८ ।
३२०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org