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हरिवंशपुराणे इत्यन्योन्यस्वरूपज्ञा रूपविज्ञानसागराः । त्रिवर्गानुभवप्रीताश्चारुदत्तादयः स्थिताः ॥१८५।।
शार्दूलविक्रीडितम् क्षीणार्थोऽपि पयोधिमप्यधिगतः कूपावतीर्णोऽप्यतो
दुर्लध्येऽपि च संचरन् गिरितटे द्वीपान्तरे वा पुमान् । लक्ष्मी धर्मसखः प्रयाति निखिला पापव्यपायाद्यत
स्तद्धर्म जिनबोधितं बुधजनाश्चिन्वन्तु चिन्तामणिम् ।।१८६।।
इति अरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती चारुदत्तचरित्रवर्णनो नाम
एकविंशतितमः सर्गः ॥२१॥
इस प्रकार आपसमें एक दूसरेके स्वरूपको जाननेवाले रूप तथा विज्ञानके सागर और त्रिवर्गके अनुभवसे प्रसन्न चारुदत्त आदि सुखसे रहने लगे ॥१८५॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! धर्मात्मा मनुष्य भले ही अत्यन्त निर्धन हो गया हो, समुद्र में भी गिर गया हो, कुएंमें भी उतर गया हो, पर्वतके अलंध्य तटपर भी विचरण करने लगा हो और दूसरे द्वीपमें भी जा पहुंचा हो तो भी पाप नष्ट हो जानेसे सम्पूर्ण लक्ष्मीको प्राप्त होता है इसलिए हे विद्वज्जनो! जिनेन्द्रदेवके द्वारा प्रतिपादित धर्मरूपी चिन्तामणि रत्नका संचय करो ॥१८६।।
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें चारुदत्तके
चरित्रका वर्णन करनेवाला इक्कीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥२१॥
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