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द्वाविंशतितमः सर्गः
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तथाप्यनूद्यते वस्तु मया विद्याधरश्रितम् । रोचिपौषधिनाथस्य स्पृष्टं किं नौषधिः स्पृशेत् ॥५०॥ प्रदर्शितजगजीव्या युगाद्यो वृषभेश्वरः । भरतेश्वरविन्यस्तराज्योऽसौ प्रावजद् यदा ॥५१॥ राजछत्रोग्रमोजाद्यास्तदा तत्तपसि स्थिताः । चतुःसहस्रसंख्या ये प्राग्भग्नाश्च परीषहैः ॥५॥ तेषां मध्ये तु यौ भग्नौ नमिचिन मिरित्युभौ । भ्रातरौ पादयोलग्नौ भर्तुस्तस्थतुरर्थिनौ ॥५३॥ धरणेन शरण्येन निर्गत्य धरणैः सह । दित्यदित्यभिधानाभ्यां देवीभ्यामागतेन तौ ॥५४॥ आश्वास्य जिनभक्तन विद्याकोशो जिनान्तिके । ताभ्यां प्रदापितस्तेन स्वदेवीभ्यां महात्मना ॥५५॥ विद्यानामदितिस्त्वष्टौ निकायान् प्रददौ तदा । गान्धर्वसेनकचासौ विद्याकोशः प्रकाशितः ॥५६॥ मनश्च मानवस्तत्र निकायः कौशिकस्तदा । गौरिकव गान्धारो भूमितुण्डश्च खण्डितः ॥५७॥ निकायौ चापरौ ख्याती मूलवीर्यकशङ्कको । ते चार्यादित्यगन्धर्वास्तथा व्योमचराः स्मृताः ॥५८॥ दित्या चाष्टी निकायास्ते वितीर्णाः पन्नगामिधाः । मातङ्गः पाण्डुकः कालः स्वपाकः पर्वतोऽपि च ॥५९॥ वंशालय: पांशुमूलो वृक्षमूलस्तथाष्टमः । दैत्यपनगमातङ्गनामतः परिमाषिताः ॥६॥ पोडशानां निकायानामिमा विद्याः प्रकीर्तिताः । सर्वविद्याप्रधानत्वं याः प्रपद्य व्यवस्थिताः ॥११॥ प्रज्ञप्ती रोहिणी विद्या विद्या चाङ्गारिणीरिता । महागौरी च गौरी च सर्वविद्याप्रकर्षिणी ॥६॥ महाश्वेतापि मायूरी हारी निर्वज्ञशावका । सा तिरस्करिणी विद्या छायासंक्रामिणी परा ।।६३॥
कुष्माण्डगणमाता च सर्वविद्याविराजिता । कष्माण्डदेवी च देवदेवो नमस्कृता ॥६४॥ सम्बन्ध रखनेवाली एक बात आपसे कहती हूँ और यह उचित भी है क्योंकि ओषधियोंका नाथ-चन्द्रमा अपनी किरणोंसे जिसका स्पर्श कर चुकता है क्या सामान्य ओषधि उसका स्पर्श नहीं कर सकती ? अर्थात् अवश्य कर सकती है ? भावार्थ-बड़े पुरुष जिस वस्तुको जानते हैं उसे छोटे पुरुष भो जान सकते हैं ।।४९-५०॥ जिस समय जगत्को आजीविकाका उपाय बतलाने वाले, युगके आदिपुरुष भगवान् वृषभदेव भरतेश्वरके लिए राज्य देकर दीक्षित हुए थे उस समय उनके साथ उग्रवंशीय, भोजवंशीय आदि चार हजार क्षत्रिय राजा भी तपमें स्थित हुए थे परन्तु पीछे चलकर वे परोषहोंसे भ्रष्ट हो गये। उन भ्रष्ट राजाओंमें नमि और विनमि ये दो भाई भी थे। ये दोनों राज्यकी इच्छा रखते थे इसलिए भगवान के चरणोंमें लगकर वहीं बैठ गये ।।५१-५३।। उसी समय रक्षा करने में निपुण जिन-भक्त धरणेन्द्रने अनेक धरणों-देवविशेषों और दिति तथा अदिति नामक अपनी देवियोंके साथ आकर नमि, विनमिको आश्वासन दिया और अपनी देवियोंसे उस महात्माने वहीं जिनेन्द्र भगवान्के समीप उन दोनोंके लिए विद्याकोश-विद्याका भाण्डार दिलाया ।।५४-५५।। अदिति देवीने उन्हें विद्याओंके आठ निकाय दिये तथा गान्धर्वसेनक नामका विद्याकोश बतलाया ॥५६॥ विद्याओंके आठ निकाय इस प्रकार थे-१ मनु, २ मानव, ३ कौशिक, ४ गौरिक, ५ गान्धार, ६ भूमितुण्ड, ७ मूलवीर्यक और ८ शंकुक। ये निकाय आर्य, आदित्य, गन्धर्व तथा व्योमचर भी कहलाते हैं ।।५७-५८॥ धरणेन्द्रकी दूसरी देवो दितिने भी उन्हें १ मातंग, २ पाण्डुक, ३ काल, ४ स्वपाक, ५ पर्वत, ६ वंशालय, ७ पांशुमूल और ८ वृक्षमूल ये आठ निकाय दिये। ये निकाय दैत्य, पन्नग और मातंग नामसे कहे जाते हैं ॥५९-६०॥ इन सोलह निकायोंकी नीचे लिखी विद्याएँ कही गयी हैं जो समस्त विद्याओंमें प्रधानताको प्राप्त कर स्थित हैं ॥६१॥ प्रज्ञप्ति, रोहिणो, अंगारिणी, महागौरी, गौरी, सर्वविद्याप्रकर्षिणी, महाश्वेता, मायूरी, हारी, निवंज्ञशावला, तिरस्करिणो, छायासंक्रामिणी, कूष्माण्ड गणमाता, सर्वविद्याविराजिता, आयं कूष्माण्डदेवी, अच्युता, आर्यवती, गान्धारी, निवृति, दण्डाध्यक्षगण, दण्डभूत१. ओषधिनाथस्य चन्द्रस्य रोचिषा कान्त्या स्पृष्टमिति संबन्धः । शोचिषौषधिनाथस्य ख., ग., घ., ङ. । २. जीवो ग., ड.। ३. सर्वविद्यापकर्षिणी म.। ४. तिरस्कारिणी म.।
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