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हरिवंशपुराणे
कुमार्यावेव बैराग्यात् परिव्राजकतां श्रिते । सुप्रसिद्धिं गते भूमौ जित्वा वादेषु वादिनः ॥ १३३॥ याज्ञवल्क्य इति ख्यातः परिव्राट् पर्यटन् धराम् । वाराणसीं तदायासोत्तजिगीषामनीषया ॥ १३४॥ सुलसा जल्पकालेऽस्य सावलेपा सभान्तरे । स्यां शुश्रूषाकरी जेतुरिति संग रमग्रहीत् ॥१३५॥ पूर्वपक्षमुपन्यस्तं तया न्यायविदां पुरः । संदृष्य याज्ञवल्क्यस्तं स स्वपक्ष मतिष्ठपत् ॥ १३६ ॥ याज्ञवल्क्यो वृतो वादे सुपराजितया तया । विषयामिषलुब्धस्तो सस्मरां समरीरमत् ॥ १३७ ॥ सुलसायाज्ञवल्क्यौ तौ जनयित्वा शुभं शिशुम् । अश्वत्थतरुमूलस्थं कृत्वा यातौ कृपाच्युतौ ॥१३८॥ तत्रोत्तानशयं मद्रा दृष्ट्वा श्वत्थफलादिनम् । पिप्पलादामित्रानेन व्याहूयैनमवीत् ॥१३९॥ पारगः सर्वशास्त्राणामेकदा पृच्छदित्यसौ । मातः ! किमभिधानो मे पिता जीवति वा न वा ॥ १४० ॥ तयोक्तं ते पिता पुत्र ! याज्ञवल्क्यः कनीयसी । मम तेन जिता वादे सुलसा जननी तव ॥ १४१ ॥ जातमात्रमपत्राणं त्वां तौ पुत्र ! तयोरधः । मुक्त्वा मुक्तकृपौ पापौ यातावद्यापि जीवतः ।।१४२।। स्तनैरन्य स्त्रियाः क्लेशान्मया समभिवर्द्धितः । कर्म पूर्वं कृतं पुत्र ! पितरौ तु स्मरातुरौ ॥ १४३ ॥ इत्याकर्ण्य तदा तस्याः 'कर्णदाह करं वचः । तद्वार्त्ताकर्णनोस्कर्णो लब्धवर्णो रुषा स्थितः || १४४|| लब्धवा रुषा गस्वास जित्वा जनकं ततः । शुश्रूषां च तयोश्व के मिथ्याविनयपूर्वकम् ॥ १४ ॥ स मातृपितृसेवाख्यं पिप्पलादः स्वयं कृतम् । 'ऋतु प्रवर्त्य तौ निन्ये समन्युमृस्युगोचरम् ॥१४६॥ गामिनी थीं || १३२ || उन दोनों पुत्रियोंने कुमारी अवस्था में ही वैराग्यवश परिव्राजककी दीक्षा ले ली और दोनों शास्त्रार्थमें अनेक वादियोंको जीतकर पृथिवी में परम प्रसिद्धिको प्राप्त हुईं ॥१३३॥ किसी समय पृथिवीपर घूमता हुआ याज्ञवल्क्य नामका परिव्राजक उन्हें जीतने की इच्छासे बनारस आया || १३४|| शास्त्रार्थंके समय अहंकारसे भरी सुलसाने सभाके बीच यह प्रतिज्ञा की कि जो मुझे शास्त्रार्थमें जीतेगा मैं उसीकी सेविका ( स्त्री ) बन जाऊँगी || १३५ || शास्त्रार्थं शुरू होनेपर सुलसाने न्याय विद्या के जानकार विद्वानोंके आगे पूर्व पक्ष रखा परन्तु याज्ञवल्क्यने उसे दूषित कर अपना पक्ष स्थापित कर दिया || १३६ || सुलसा शास्त्रार्थमें हार गयी इसलिए उसने याज्ञवल्क्यको वर लिया - अपना पति बना लिया । याज्ञवल्क्य विषयरूपी मांसका बड़ा लोभी था तथा सुलसाको भी कामेच्छा जागृत हो उठी इसलिए दोनों मनमानी क्रीड़ा करने लगे ||१३७ || सुलसा और याज्ञवल्क्यने एक उत्तम पुत्रको जन्म दिया परन्तु वे इतने निर्दयी निकले कि उस सद्योजात पुत्रको पीपल के वृक्ष के नीचे रखकर कहीं चले गये ||१३८ || वह पुत्र पीपलके नीचे चित्त पड़ा था तथा मुखमें पड़े हुए पीपल के फलको खा रहा था । सुलसाकी बड़ी बहन भद्रा उसे इस दशा में देख उठा लायी और उसका पिप्पलाद नाम रखकर उसका पोषण करने लगी || १३९ || समय पाकर पिप्पलाद समस्त शास्त्रोंका पारगामी हो गया। एक दिन उसने भद्रासे पूछा कि मातः ! मेरे पिताका क्या नाम है ? वे जीवित हैं या नहीं ? || १४०|| भद्राने कहा कि बेटा ! याज्ञवल्क्य तेरा पिता है। उसने मेरी छोटी बहन सुलसाको शास्त्रार्थ में जीत लिया था वही तेरी माता है ॥ १४१ ॥ हे बेटा ! जब तू पैदा ही हुआ था तथा कोई तेरा रक्षक नहीं था तब तुझे एक वृक्षके नीचे छोड़कर वे दोनों दयाहीन पापी चले गये थे और आज तक जीवित हैं || १४२ || मैंने दूसरी स्त्रीके स्तन पिलापिलाकर तुझे बड़े क्लेशसे बड़ा किया है। हे पुत्र ! तूने पहले ऐसा ही कर्म किया होगा यह ठीक है परन्तु कहना पड़ेगा कि तेरे माता-पिता बड़े कामी निकले || १४३ || उस समय कानों में दाह उत्पन्न करनेवाले भद्राके पूर्वोक्त वचन सुनकर विद्वान् पिप्पलादको बड़ा क्रोध आया और उसकी बात सुनकर उसके कान खड़े हो गये || १४४ || पता चलाकर वह अपने पिता याज्ञवल्क्यके पास गया और रोषपूर्वक उसे शास्त्रार्थमें जीतकर झूठ-मूठकी विनय दिखाता हुआ मातापिताकी सेवा करने लगा || १४५|| पिप्पलाद माता-पिता के प्रति क्रोधसे भरा था इस
१. कर्णशूलकरं ग । २. कर्तुं म ।
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