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हरिवंशपुराणे समुद्रयात्रया यातः षट् कृत्वो भिन्ननौस्थितिः । अष्टकोटीश्वरश्वाहममवं मिन्नपात्रकः ॥७९॥ आसाद्य फलकं कृच्छादुत्तीर्य मकरालयम् । प्राप्तो राजपुरं तत्र परिव्राजकमैक्षिषि ॥८॥ तेनाहं शान्तवेषेण श्रान्तो विश्रान्तिमाहितः। रसलोभेन च विश्वास्य कान्तारं च प्रवेशितः ॥१॥ मुग्धः सदग्धिको रज्ज्वा परिवाजावतारितः । प्रविष्टोऽहं बिलं' मीम प्रेरितो रसतृष्णया ।।८।। रसाया मूलमासाद्य रज्ज्वारूढो दृढासनः । आददानो रसं पुंसा निषिद्धस्तत्र केनचित् ।।८३।। मा स्पाक्षीस्त्वं रसं भद्र ! रौद्रं यदि जिजीविषुः । स्पृश्येत चेन्न जीवन्तं मुञ्चति क्षयरोगवत् ॥८४॥ ततश्चकितचित्तोऽहमवोचं तमिति द्रुतम् । त्वं भोः कः केन वा क्षिप्त इहेयुक्तो जगाद सः ॥८५।। उज्जयिन्या वणिग्मिन्नपात्रोऽपात्रेण लिङ्गिना । रसमादाय निक्षिप्तो रसराक्षसवक्षसि ।।८६॥ स्वगस्थिशेषभूतोऽहं रसभुक्तो व्यवस्थितः । ममातो निर्गमो भद्र ! मृतस्यैव न जीवतः ।।८७।। संपृएस्तेन मोः कस्त्वमित्यवोचमहं पुनः । चारुदत्तो वणिक् क्षिप्तः परिवाजा तवारिणा ॥४८॥ प्रियवादाति विश्वस्य वकवृत्तेर्दुरात्मनः । अधोऽधोऽनुचरो मुग्धः पततीति किमद्भुतम् ।।८।। पूरयित्वा रसं तेन रज्जुमारोप्य चालितम् । एकामाकृष्य कृत्त्वैकां कृतार्थः स खलो गतः ॥१०॥ पतितस्य तटे तेन पुंसा निर्गमनाय मे। उपायः साधुनावाचि ततश्चेति कृपावता ॥११॥
फट गया। अन्तमें जिस किसी तरह मैं आठ करोड़का स्वामी होकर लौट रहा था कि फिर भी जहाज फट गया और सारा धन समुद्र में डूब गया ।।७९।। भाग्यवश एक तख्ता पाकर बड़े कष्टसे मैंने समुद्रको पार किया। समुद्र पारकर मैं राजपुर नगर आया और वहाँ एक संन्यासीको मैंने देखा ।।८०॥ मैं थका हुआ था इसलिए शान्तवेषको धारण करनेवाले उस संन्यासीने मुझे विश्राम कराया। तदनन्तर रसका लोभ देकर एवं विश्वास दिलाकर वह मुझे एक सघन अटवीमें ले गया ॥८१।। मैं भोला-भाला था इसलिए उस संन्यासीने एक तूमड़ी देकर मुझे रस्सीके सहारे नीचे उतारा जिससे मैं रसको तृष्णासे एक भयंकर कुएंमें जा घुसा ।।८२।। पृथिवीके तलमें पहुंचकर रस्सीपर अपना दृढ़ आसन जमाये हुए जब मैं रस भरने लगा तब वहाँ स्थित किसी पुरुषने मुझे रोका ॥८३॥ उसने कहा कि हे भद्र! यदि तु जीवित रहना चाहता है तो इस भयंकर रसका स्पर्श मत कर। यदि किसी तरह इसका स्पर्श हो जाता है तो क्षयरोगको तरह यह जीवित नहीं छोड़ता ॥८४॥ तदनन्तर आश्चर्यचकित हो मैंने उससे शीघ्र ही इस प्रकार पूछा कि महाशय ! तुम कौन हो? और किसने तुम्हें यहाँ डाल दिया है ? मेरे यह कहनेपर वह बोला कि मैं उज्जयिनीका एक वणिक हूँ। मेरा जहाज फट गया था इसलिए एक अपात्र साधुने रस लेकर मझे रसरूपी राक्षसके वक्षःस्थलपर गिरा दिया है ।।८५-८६॥ रसके उपभोगसे मेरी चमड़ी तथा हड्डो ही शेष रह गयो है। हे भद्र ! मेरा तो यहांसे निकलना तभी होगा जब मैं मर जाऊँगा जीवित रहते मेरा निकलना नहीं हो सकता ॥८७।। उस मनुष्यने मझसे भी पूछा कि तुम कौन हो? तब मैंने कहा कि मैं चारुदत्त नामका वणिक् हूँ और जो तुम्हारा शत्रु था उसो संन्यासाने मुझे यहाँ गिराया है।।८८।। 'यह प्रियवादी है' इसलिए बगलेके समान मायाचारी दुष्ट मनुष्यका विश्वास कर उसके पीछे-पीछे चलनेवाला मूढ़ मनुष्य यदि नीचे-नीचे गिरता है तो इसमें आश्चर्य हो क्या है ? ॥८९।। अन्तमें मैंने तूमड़ीमें रस भरकर तथा रस्सीमें बाँधकर उसे चलाया। जिस रस्सीमें रसको तूमड़ो बंधी थी उस रस्सीको तो उस संन्यासीने खींच लिया और जिसके सहारे मुझे ऊपर चढ़ना था उसे काट दिया। इस प्रकार अपने मनोरथको सिद्ध कर वह दुष्ट वहाँसे चला गया॥९०॥ जब मैं किनारेपर जा पड़ा तब उस सज्जन पुरुषने दयायुक्त हो मेरे लिए निकलनेका मार्ग बतलाया ॥९१।
१. -मादृतः म. । २. कूपम् ग. टि. । ३. मूलमाशाया म. । ४. स्पृशेत म. । स्पृशत ग. । ५. छित्त्वा।
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