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हरिवंशपुराणे
कृतसंकेतया पूर्व कृतः कालिङ्गसेनया । स्वागतासनदानाद्यैरुपचारोऽत्र चावयोः ॥ ५४ ॥ द्यूते तत्रोत्तरीयं च 'रौद्रदत्त' जितं तथा । ततोऽहमुद्यतो रन्तुमपसार्य तमेतया ॥ ५५॥ वसन्तसेनया घृतादपसार्य स्वमातरम् । कृता दुरोदरक्रीडा मया सह विदग्धया ॥ ५६ ॥ आसक्तश्च चिरं तत्र पायितोऽतिपिपासितः । मतिमोहनयोगेन वासितं शिशिरोदकम् ॥५७॥ अतिविस्रम्भतस्तस्यामनुरागे ममोद्गते । करग्रहणमेतस्या जनन्या कारितोऽस्म्यहम् ॥५८॥ वसता तत्र वर्षाणि मया द्वादश विस्मृतौ । पितरौ मित्रवत्यामा कार्येष्वन्येषु का कथा ॥ ५९ ॥ वृद्धसेवाविवृद्धा मे गुणास्तरुणिसेवया । दोषैरुपचितैश्छन्नाः सजना इव दुर्जनैः ॥ ६० ॥ स्वर्णषोडशकोटीषु प्रविष्टासु निजं गृहम् । दृष्ट्वा कालिङ्ग सेनान्ते मित्रवत्या विभूषणम् ॥ ६१ ॥ जगौ वसन्तसेनां तामेकान्ते मन्त्रकोविदा । दुहितर्हितमाभाषे कर्ण मद्वचनं कुरु ॥६२॥ गुरुवाक्यामृतं मन्त्रं सदाभ्यस्यति यो जनः । तमनर्थग्रहा दूराद् ढौकन्ते न कदाचन ॥६३॥ जानास्येव जघन्यां नो वृत्तिं यद्वित्तवान् प्रियः । हेयः पीलितसारः स्यादिश्वलक्तकवन्नरः ॥६४॥ तनुलग्नमलंकारं चारुदत्तस्य भार्यया । प्रेषितं प्रेक्ष्यकारुण्याद् व्यसर्जयमहं पुनः ॥ ६५॥ तदस्य पीतसारस्य कुरु तावद्विमोक्षणम् । सारवन्तं नरं स्वम्यं नवेक्षुमिव भक्षय ॥ ६६ ॥
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और पीछे दो-दो हाथियोंको लड़ा दिया और सुरक्षा पानेके लिए मुझे उस वेश्या के घर प्रविष्ट करा दिया || ५३ | | कलिंगसेना वेश्याको इस बातका पहलेसे ही संकेत कर दिया गया । इसलिए उसने स्वागत तथा आसन आदिके द्वारा हम दोनोंका सत्कार किया || ५४ || तदनन्तर कलिंगसेना और रुद्रदत्तका जुआ प्रारम्भ हुआ सो कलिंगसेनाने जुआमें रुद्रदत्तका दुपट्टा तक जीत लिया। तब मैं रुद्रदत्तको हटाकर कलिंगसेनाके साथ जुआ खेलनेके लिए उद्यत हुआ || ५५ || मुझे उद्यत देख वसन्तसेनासे भी नहीं रहा गया। इसलिए वह चतुरा अपनी माताको अलग कर मेरे साथ जुआ खेलने लगी ||५६ || मैं जुआ खेलनेमें चिरकाल आसक्त रहा। इसी बीच मुझे जोरकी प्यास लगी तो उसने बुद्धिको मोहित करनेवाले योगसे सुवासित ठण्डा पानी मुझे पिलाया || ५७ || अतिशय विश्वासके कारण जब उसपर मेरा अनुराग बढ़ गया तब उसकी माताने मुझे उसका हाथ पकड़ा दिया || १८ || मैं उसमें इतना आसक्त हुआ कि उसके घर बारह वर्षं तक रहा। इस बीचमें मैंने अपने माता-पिता तथा प्रिय स्त्री मित्रवतीको भी भुला दिया। फिर अन्य कार्योंकी तो कथा ही क्या थी ? ॥५९॥ वृद्धजनोंकी सेवासे पहले जो मेरे गुण वृद्धिको प्राप्त हुए थे वे तरुणीकी सेवा उत्पन्न हुए दोषोंसे उस तरह आच्छादित हो गये जिस तरह कि दुर्जनोंसे सज्जन आच्छादित हो जाते हैं ||६०|| हमारे पिता सोलह करोड़ दीनारके धनी थे। सो जब सब धन क्रम-क्रमसे कलिंगसेनाके घर आ गया और अन्त में मित्रवतीके आभूषण भी आने लगे तब यह देख मन्त्र करने में निपुण कलिंगसेना एक दिन एकान्त में वसन्तसेनासे बोली कि बेटी ! में हितकी बात कहती हूँ सो मेरे वचन कानमें धर ॥ ६१-६२ ॥ जो मनुष्य गुरुजनोंके वचनामृतरूप मन्त्रका सदा अभ्यास करता है अनर्थरूपी ग्रह सदा उससे दूर रहते हैं, कभी उसके पास नहीं आते || ६३ || तू हम लोगों की इस जघन्य वृत्तिको जानती ही है कि धनवान् मनुष्य ही हमारा प्रिय है। जिसका धन खींच लिया है ऐसा मनुष्य ईखके छिलके के समान छोड़ने योग्य होता है || ६४ || आज चारुदत्तकी भार्या ने अपने शरीरका आभूषण उतारकर भेजा था सो उसे देख मैंने दयावश वापस कर दिया है ||६५ || इसलिए अब सारहीन ( निर्धन ) चारुदत्तका साथ छोड़ और नयी ईखके समान किसी दूसरे सारवान् (सधन) मनुष्यका उपभोग कर || ६६॥
१. रुद्रदत्तस्येदं रौद्रदत्त ं, उत्तरीयं वस्त्रम् । २. जघन्यातो वृत्तिर्यद्वित्तवान् प्रियः म । ३. प्रेप्य म. ।
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