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हरिवंशपुराणे गाढाकल्पकशल्याय पित्रा मे याचित्ता च सा । संवृत्तश्चोमयोराश विवाहः परमोत्सवः ॥२६॥ धूमसिंहोऽपि चामष्यां साभिलाषोऽमिलक्षितः । अप्रमत्ततया चाहं विहरामि तया सदा ॥२७॥ रममाणोऽद्य तेनाहं कीलितो मोचितस्त्वया । हृतासौ मोचिता शत्रोर्मयेयं सुकुमारिका ॥२८॥ तदेष योज्यतामद्य जनः कर्मणि वाञ्छिते । वयोज्येष्ठोऽपि तं कुर्वे प्राणदस्यानुवर्त्तनम् ॥२९॥ मवतोद्धतशल्यं मां जीवन्तमिह जन्मनि । कृतप्रत्युपकारं ते प्रतीह्यद्धतशल्यकम् ॥३०॥ इति प्रियंवदोऽवादि स्त्रीसखः खेचरी मया । कृतं कृतं हि मे सर्व त्वया सद्भावदर्शिना ॥३१॥ शुद्धं दर्शयता भावं वद किं न कृतं त्वया । तदेवोपकृतं पुंसां यत् सद्भावदर्शनम् ॥३२॥ पुण्यवान् ननु पूज्योऽहं तत्तवानघदर्शनम् । जातं मे सुलभं लोके सामान्यनरदुर्लभम् ॥३३॥ सर्वसाधारणं नणामवस्थान्तरवर्तनम् । त्वं विषण्णमना मा भूः कीलितोऽस्मीति वैरिणा ॥३४॥ उपकारमतिस्तात ! यदि मां प्रति ते ततः । मय्यपत्यमतिः कार्या त्वया नित्यमितीरिते ॥३५॥ वाढमित्यभिधायासौ नाम गोत्रं च मे ततः । पृष्ट्वामिधाय मापृच्छय स्वोसखः स खमुद्ययौ ॥३६॥ प्रविष्टाश्च वयं चम्पां विद्याधरकथारताः । दृष्टश्रतानुभूतं हि नवं तिकरं नृणाम् ॥३७॥ "ऊढा च यौवनस्थेन नाम्ना मित्रवती मया। सर्वार्थस्य सुमित्राया मातुलस्य तनूभवा ॥३८॥ शास्त्रव्यसनिनो मेऽभून्नात्मस्त्रीविषयेऽपि धीः । शास्त्रव्यसनमन्येषां व्यसनानां हि बाधकम् ॥३९॥
वह मेरे देखने में आयो और देखते ही साथ उसने मेरा मन हर लिया ॥२४-२५।। मैं वहाँसे चला तो आया परन्तु उसकी प्राप्तिको उत्कण्ठारूप शल्य मेरे मनमें बहुत गहरी लग गयी। अन्तमें पिताने मेरे लिए उस कन्याकी याचना की और शीघ्र ही दोनोंका बड़े उत्सवके साथ विवाह हो गया ॥२६|| चूंकि मुझे दिखा कि मेरा मित्र धूमसिंह भी इस सुकुमारिकाको पानेकी अभिलाषा रखता है इसलिए मैं सदा प्रमादरहित होकर इसके साथ विहार करता हूँ ॥२७॥ परन्तु आज मैं इसके साथ रमण कर रहा था कि वह धूमसिंह मुझे कीलित कर इस सुकुमारिकाको हर ले गया। आपने मुझे छुड़ाया और मैं इसे शत्रुसे छुड़ा लाया हूँ |२८|| इसलिए आज इस जनको ( मुझे) इच्छित कार्यमें लगाइए । क्योंकि आप मेरे प्राणदाता हैं इसलिए अवस्थामें ज्येष्ठ होनेपर भी मैं आपकी सेवा करूँगा ॥२९।। यद्यपि आपने मेरी शल्य निकालकर मुझे जीवित किया है तथापि यथार्थमें मेरी शल्य तभी निकलेगी जब मैं आपका प्रत्युपकार कर लँगा ॥३०॥
इस प्रकार स्त्रीसहित मधुर वचन बोलनेवाले उस विद्याधरसे मैंने कहा कि जब आप मेरे प्रति इस तरह शुभ भाव दिखला रहे हैं तब मेरा सब काम हो चुका। कहिए शुद्ध अभिप्रायको दिखाते हुए आपने मेरा क्या नहीं किया है ? मनुष्योंको जो शुभ भावको दिखाना है वही तो उनका उपकार है ॥३१-३२।। हे निष्पाप ! निश्चयसे मैं आज पुण्यवान् और पूज्य हुआ हूँ क्योंकिसंसारमें अन्य सामान्य मनुष्योंके लिए दुलंभ आपका दर्शन मुझे सूलभ हआ है ।।३३।। मनुष्योंकी अवस्थाओंका पलटना सर्वसाधारण बात है इसलिए मैं शत्रुके द्वारा कीलित हुआ। यह सोचकर आप खिन्नचित्त न हों ॥३४॥ हे तात ! यदि आपकी मेरे प्रति उपकार करनेकी भावना ही है तो आप मुझे सदा अपना पुत्र समझिए। इस प्रकार मेरे कहनेपर उसने कहा कि बहुत ठीक है। तदनन्तर वह मेरा नाम और गोत्र पूछकर स्त्री सहित आकाशमें उड़ गया ॥३५-३६।। और हम लोग उसी विद्याधरकी कथा करते हुए चम्पा नगरीमें प्रविष्ट हुए सो ठोक ही है क्योंकि देखीसुनी और अनुभवमें आयी नूतन वस्तु ही मनुष्योंको सुखदायक होती है ॥३७॥
तरुण होनेपर मैंने अपने मामा सर्वार्थकी सुमित्रा स्रोसे उत्पत्र मित्रवती नामक कन्याके साथ विवाह किया ॥३८॥ क्योंकि मुझे शास्त्रका व्यसन अधिक था इसलिए अपनी वीके विषयमें १. वर्धनं म.। २. मां पृच्छय क., ख., ग., घ, । मा = माम् + आपृच्छय, इतिच्छेदः । ३. रूढा स.।
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