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एकविंशतितमः सर्गः
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वराहगोमुखाभिख्यहरिसिंहतमोऽन्तकाः । मरुभूतिरिति प्रीता वयस्या मेऽभवंस्तदा ॥१३॥ तैः सह क्रीडया यातो निम्नगा रत्नमालिनीम् । 'अपादोपहतं पश्यन् दम्पत्योः पुलिने पदम् ॥१४॥ जातविद्याधराशङ्काः प्रगत्यानुपदं च तम् । रतशय्यामपश्याम श्यामले कदलीगृहे ॥१५॥ रतिव्यतिकरम्लानपुष्पपल्लवतल्पतः । अल्पमन्तरमन्विष्य सुमहागहनं वनम् ॥१६॥ दृष्टो विद्याधरो वृक्षे कोलितो लोहकोलकैः । पाश्र्वखेटकखड गाग्रव्यग्ररक्तनिरीक्षणः ॥१७॥ तिस्रः खेटकसंगूढा गृहीत्वौषधिवर्तिकाः । चालनोत्कीलनोन्मूलब्रणरोहाः कृता मया ॥१८॥ निःकीलो निव्रणश्चासौ गृहीत्वा खड्गखेटको । निरुत्तरः खमुत्पत्य दधावोत्तरया दिशा ॥१९॥ प्रलापानुपदं गत्वा हियमाणां द्विषा प्रियाम् । विमोच्यादाय तामेत्य मामवीचन्महादरः ॥२०॥ भद्र ! दत्ता यथा प्राणा म्रियमाणाय मे त्वया । तथैव दीयतामाज्ञा वद किं विदधामि ते ॥२१॥ वैताढयस्ति नृपः श्रेण्या दक्षिणस्यां हि दक्षिणः । महेन्द्रविक्रमो नाम्ना नगरे शिवमन्दिरे ॥२२॥ तस्यामितगतिर्नाम्ना तनयोऽहमतिप्रियः । मित्रं मे धूमसिंहश्च गौरमुण्डश्च खेचरः ॥२३॥ हीमन्तं पर्वतं ताभ्यामागतेन मयान्यदा । यौवनश्रियमारूढा दृष्टा तापसकन्यका ॥२४॥ हिरण्यरोमतनया शिरीषसुकुमारिका । जहार हृदयं हृद्या नाम्ना मे सुकुमारिका ॥२५॥
बन्धुजनोंका हर्षरूपी सागर वृद्धिंगत होता जाता था ॥१२॥ उस समय वराह, गोमुख, हरिसिंह, तमोऽन्तक और मरुमूति ये पांच मेरे मित्र थे जो मुझे अतिशय प्रिय थे ॥१३॥ एक बार उन मित्रोंके साथ क्रीड़ा करता हुआ मैं रत्नमालिनी नदी गया। वहाँ मैंने किनारेपर किसी दम्पतीका एक ऐसा स्थान देखा जिसपर पहुँचनेके लिए पैरोंके चिह्न नहीं उछले थे ॥१४॥ हम लोगोंको विद्याधर दम्पतीकी आशंका हुई इसलिए कुछ और आगे गये। वहां जाकर हम लोगोंने हरे-भरे कदली गृहमें उस विद्याधर दम्पतीकी रति-शय्या देखी ॥१५॥ रति सम्बन्धी कार्यसे जिसके फूल और पल्लव मुरझा रहे थे ऐसी उस रतिशय्यासे कुछ दूर आगे चलनेपर एक बड़ा सघन वन दिखा ॥१६॥ वहां एक वृक्षपर लोहको कीलोंसे कोलित एक विद्याधर दिखाई दिया। उस विद्याधरके लाल-लाल नेत्र समीपमें पड़ी हुई ढाल और तलवारके अग्रभागमें व्यग्र थे अर्थात् वह बार-बार उन्हीं की ओर देख रहा था ॥१७॥ उसके इस संकेतसे मैंने ढालके नीचे छिपी हुई चालन, उत्कीलन और उन्मूलव्रणरोह नामक तीन दिव्य ओषधियां उठा लीं। और चालन नामक ओषधिसे मैंने उस विद्याधरको चलाया, उत्कीलन नामक ओषधिसे उसे कीलरहित किया तथा उन्मूलनव्रणरोह नामक ओषधिसे कील निकालनेका घाव भर दिया ॥१८॥ ज्यों ही वह विद्याधर कीलरहित एवं घावरहित हुआ त्यों हो ढाल और तलवार लेकर चुपचाप आकाशमें उड़ा और उत्तर दिशाको ओर दौड़ा ।।१९।। जिस ओरसे रोनेका शब्द आ रहा था वह उसी ओर दौड़ता गया और शत्रुके द्वारा हरी हुई अपनी प्रियाको छुड़ा लाया। प्रियाको लाकर वह वहीं आया और बड़े आदरके साथ मुझसे बोला कि हे भद्र ! जिस प्रकार आज मुझ मरते हुएके लिए आपने प्राण दिये हैं उसी प्रकार आज्ञा दीजिए । कहिए मैं आपका क्या प्रत्युपकार करूं ? ॥२०-२१॥
विजयाधं पर्वतकी दक्षिण श्रेणीमें एक शिवमन्दिर नामका नगर है। उसमें महेन्द्रविक्रम नामका सरल राजा है। उसी महेन्द्रविक्रम राजाका मैं अतिशय प्यारा अमितगति नामका पुत्र हूँ। धूमसिंह और गौरमुण्ड नामके दो विद्याधर मेरे मित्र हैं ॥२२-२३।। किसी समय उन दोनों मित्रोंके साथ मैं ह्रीमन्त नामक पर्वतपर आया। वहां एक हिरण्यरोम नामका तापस रहता था। उसको पूर्ण यौवनवती एवं शिरीषके फूलके समान सुकुमार सुकुमारिका नामकी सुन्दर कन्या थी।
१. आपदोपहतं म., घ. । २. पार्वे खेटक- म. । ३. -माज्ञां म.।
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