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एकविंशतितमः सर्गः
अथ गान्धर्वसेन तां कथंचित्खेचरान्वयाम् । अतिराजविभूतिं च चारुदत्तं निरूप्य सः ॥१॥ चारुगोष्ठीसुखास्वादश्चारुदत्तं यदूत्तमः । उदारचरितोऽपृच्छदुदारचरितप्रियः ॥२॥ 'प्रतीक्ष्य कथमीदृश्यः सादृश्य परिवर्जिताः । देवपौरुषसूचिन्यः संपदो भवतार्जिताः ॥३॥ वद विद्याधरी चेयं कुतः स्तुत्या तवास्पदे । न्यवसद् वसुमिः पूर्ण वर्षकर्णामृतं मम ॥४॥ इति पृष्टोऽवदत्सोऽस्मै प्रहृष्टमतिरादरात् । साधु पृष्टमिदं धीर ! वच्मि ते शृणु वृत्तकम् ॥५॥ आसीदव वेश्येशश्चम्पायां सुमहाधनः । भानुदत्त इति ख्यात: सुभद्रा तस्य भामिनी ॥६॥ सम्यग्दर्शनसंशुद्धिनानाणुव्रतधारिणोः । काले याति सुखाम्भोधिमग्नयोयौवनस्थयोः ॥७॥ चिरायति तयोश्चित्तनयनामतवर्षिणि । साक्षाद्गृहिफले श्रीमदपत्यमुखपङ्कजे ॥८॥ अर्हदायतने पूजां कुर्वाणावन्यदा च तौ । चारणश्रमणं दृष्ट्वा पुत्रोत्पत्तिमपृच्छताम् ॥९॥ अचिरेणेव तेनापि यतिना कृपया तयोः । प्रधानसुतसंभूतिरादिष्टा पृष्टमात्रतः ॥१०॥ उत्पन्नश्चाचिरेणाहं तयोः प्रीतिकरः सुतः । चारुदत्ताभिधानश्च कृतः कृतमहोत्सवः ॥११॥ कृताणुव्रतदीक्षश्च ग्राहितः सकलाः कलाः । बालचन्द्रः परां वृद्धिं बान्धवाम्मोनिधेरधात् ॥१२॥
अथानन्तर जिन्हें उत्तमोत्तम गोष्ठियोंके सुखका स्वाद था, जो स्वयं उदार चरितके धारक थे और उदारचरितके धारक मनुष्योंके लिए अत्यन्त प्रिय थे ऐसे यदुवंशशिरोमणि तरह विद्याधरोंके कूलमें उत्पन्न गान्धर्वसेनाको एवं राजाओंकी विभूतिको तिरस्कृत करनेवाले चारुदत्तको देखकर उनसे पूछने लगे कि हे पूज्य ! जो अपनी तुलना नहीं रखती तथा जो आपके भाग्य और पुरुषार्थ दोनोंको सूचित करनेवाली हैं ऐसी ये सम्पदाएं आपने किस तरह प्राप्त की ? कहिए कि यह प्रशंसनीय विद्याधरी, धन-धान्यसे परिपूर्ण आपके भवनमें निवास करती हुई मेरे कानोंमें अमृतकी वर्षा क्यों कर रही है ? ॥१-४॥ वसुदेवके द्वारा इस प्रकार पूछे जानेपर चारुदत्त बहुत ही प्रसन्न हुआ और आदरके साथ कहने लगा कि हे धोर! तुमने यह ठीक पूछा है । अच्छा, ध्यानसे सुनो मैं तुम्हारे लिए अपना वृत्तान्त कहता हूँ ।।५।।
इसी चम्पापुरीमें अतिशय धनाढ्य भानुदत्त नामक वैश्यशिरोमणि रहता था। उसकी स्त्रीका नाम सुभद्रा था ॥६॥ सम्यग्दर्शनको विशुद्धताके साथ नाना अणुव्रतोंको धारण करनेवाले सुखरूपी सागरमें निमग्न एवं पूर्ण यौवनसे सुशोभित उन दोनोंका समय सुखपूर्वक बीत रहा था॥७॥ तदनन्तर किसी समय जब कि उन दोनोंके चित्त और नेत्रोंके लिए अमृत बरसानेवाला एवं गृहस्थीका साक्षात् फलस्वरूप, भाग्यशाली पुत्रका मुख कमल विलम्ब कर रहा था अर्थात् उन दोनोंके जब पुत्र उत्पन्न होनेमें विलम्ब दीखा तब वे दोनों मन्दिरमें पूजा कर रहे थे उसी समय चारणऋद्धिधारी मुनिके दर्शन कर उन्होंने उनसे पुत्रोत्पत्तिकी बात पूछी ॥८-९।। पूछते हो उन मुनिराजने दोनों दम्पतियोंपर दया कर कहा कि तुम्हारे शीघ्र ही उत्तम पुत्रकी उत्पत्ति होगी।॥१०॥ और कुछ ही समय बाद उन दोनों दम्पतियोंके आनन्दको बढ़ानेवाला मैं पुत्र हुआ। मेरा चारुदत्त नाम रखा गया तथा मेरे जन्मका बड़ा उत्सव मनाया गया ॥११॥ अ की दीक्षाके साथ-साथ जिसे समस्त कलाएँ ग्रहण करायी गयी थीं ऐसा वह बालकरूपी चन्द्रमा परिवाररूपी समुद्रको वृद्धि करने लगा । भावार्थ-वह बालक ज्यों-ज्यों कलाओंको ग्रहण करता जाता था त्यों-त्यों १. पूज्य !
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