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विशतितमः सर्गः
३०३ तपो घोरमसौ कृत्वा कृत्वान्तं घातिकर्मणाम् । विहृत्य केवली विष्णुर्मोक्षमन्ते ययौ विभुः ॥६३॥ इदं विष्णुकुमारस्य चरितं 'दुरिताशनम् । यः शृणोति जनो भक्त्या दृष्टिशुद्धिं श्रयेत सः ॥६॥
शार्दूलविक्रीडितम् स्वस्थानाचलयेदलं गुरुतरान् कामन्दरान्मन्दरी
__श्चन्द्रार्कानपि पातयेस्करबलव्यापारतः पारतः। तोयेशान् विकिरेदुपप्लवयुतानि मुक्तये मुक्तये
साधुः स्यात् किमु दुष्करं जिनतप:श्रीयोगिनां योगिनाम् ॥६५॥
इति अरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतो विष्णुकुमारमाहात्म्यवर्णनो
नाम विंशः सर्गः ॥२०॥
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स्वामी विष्णुकुमार, घोर तपश्चरण कर तथा घातिया कर्मोका क्षय कर केवलो हुए और विहार कर अन्तमें मोक्षको प्राप्त हुए ॥६३।। गौतम स्वामी कहते हैं कि जो मनुष्य विष्णुकुमार मुनिके इस पापापहारी चरितको भक्तिपूर्वक सुनता है वह सम्यग्दर्शनको शुद्धिको प्राप्त होता है ॥६४॥ साधु चाहे तो अतिशय विशाल मन्दराचलोंको भी स्वेच्छानुसार भयसे अपने स्थानसे विचलित कर सकता है, हथेलियोंके व्यापारसे सूर्य और चन्द्रमाको भी आकाशसे नीचे गिरा सकता है, उपद्रवोंसे युक्त लहराते हुए समुद्रोंको भी बिखेर सकता है और जो मुक्तिका पात्र नहीं है उसे भी मुक्ति प्राप्त करा सकता है, सो ठीक ही है क्योंकि जिनशासन प्रगीत तपोलक्ष्मोके धारक योगियों के लिए क्या कठिन है ? अर्थात् कुछ भी नहीं॥६५॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें
विष्णुकुमारका वर्णन करनेवाला बीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥२०॥
१. दुरितनाशनम् म. । २. पातयेऽम्बरतल -म.। ३. व्यापारतोपारतः क.।
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