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एकविंशतितमः सर्गः
३०९ शङ्कनेव ततः कर्णे ताडिता सातिपीडिता । जगाद मातरं मातः किमिदं गदितं त्वया ॥७॥ कौमारं पतिमुज्झित्वा चारुदत्तं चिरोषितम् । कुबेरेणापि मे कार्य नेश्वरेण परेण किम् ॥६॥ प्राणैरपि हि मे 'नार्थश्चारुदत्तवियोजकैः । मैवं वोचः पुनर्मातर्यदि मे जीवितं प्रियम् ॥१९॥ पूरितं कोटिशो द्युम्नैह ते तद्गृहागतैः । तथापि तजिहासाभूदकृतज्ञा हि योषितः ॥७०॥ कलापारमितस्याम्ब रूपातिशययोगिनः । सद्धर्मदर्शिनो मेऽस्य स्यात्यागस्त्यागिनः कुतः ॥७॥ अत्यासतामिति ज्ञात्वा कृत्वा तदनुवर्तनम् । चिन्तयन्ती स्थितोपायमावयोः सा वियोजने ॥७२॥ आसने शयने स्नाने भोजने चापि युक्तयोः । योगेनायुज्य नौ निद्रामहं रात्रौ बहिः कृतः ॥७३॥ निद्रापाये गृहं गत्वा मर्तृनिःक्रान्तिदुःखिनीम् । अपश्यं मातरं दुःखी भार्या च कृतरोदनाम् ॥७॥ ततः कृततदाश्वासः प्रियालंकारहस्तकः । उशीरावर्त्तमायातो मातुलेन वणिज्यया ॥५॥ क्रीत्वा तत्र च कापसिं ताम्रलिप्तं प्रगच्छतः । देवकालनियोगेन सोऽप्यदाहि दवाग्निना ॥७६॥ मुक्त्वा मातुलमश्वेन पूर्वाशां गच्छतो मृतः । सोऽपि पद्भ्यां ततो यातः प्रियङ्ग नगरं श्रमी ॥७॥ सुरेन्द्रदत्तनाम्नाहं पितृमित्रेण वीक्षितः। विश्रान्तः कतिचित्तत्र दिनानि सुखसंगतः ॥८॥
कलिंगसेनाकी बात सुनकर वसन्तसेनाको इतना तोव्र दुःख हुआ मानो उसके कानमें कीला ही ठोक दिया हो। उसने मातासे कहा कि हे मातः ! तूने यह क्या कहा ? ॥६७॥ कुमारकालसे जिसे स्वीकार किया तथा चिरकाल तक जिसके साथ वास किया उस चारुदत्तको छोड़कर मुझे कुबेरसे भी क्या प्रयोजन है ? फिर दूसरे धनाढ्य मनुष्यको तो बात ही क्या है ? ॥६८॥ अधिक क्या कहूँ चारुदत्तके साथ वियोग करानेवाले इन प्राणोंसे भी मुझे प्रयोजन नहीं है । हे मातः ! यदि मेरा जीवन प्रिय है तो अब पुनः ऐसे वचन नहीं कह ॥६९।। अरे ! उसके घरसे आये हुए करोड़ों दीनारोंसे तेरा घर भर गया फिर भी तुझे उसके छोड़नेकी इच्छा हुई सो ठोक ही है क्योंकि खियां अकृतज्ञ होती हैं ॥७०।। हे मातः! जो कलाओंका पारगामी है, अत्यन्त रूपवान् है, समीचीन धर्मको जाननेवाला है एवं अतिशय त्यागी-उदार है, उस चारुदत्तका त्याग में कैसे कर सकती हूँ ? ७१॥ इस प्रकार वसन्तसेनाको मुझमें अत्यन्त आसक्त जान कलिंगसेना उस समय तो कुछ नहीं कह सकी, उसोकी हांमें हाँ मिलाती रही परन्त मनमें हम दोनोंको वियक्त करनेका उपाय सोचती रही ॥७२।। हम दोनों आसनपर बैठते समय, शय्यापर सोते समय, स्नान करते समय और भोजन करते समय साथ-साथ रहते थे इसलिए उसे वियुक्त करनेका अवसर नहीं मिलता था। एक दिन उसने किसी योग ( तन्त्र ) द्वारा हम दोनोंको निद्रामें निमग्न कर रात्रिके समय मुझे घरसे बाहर कर दिया ॥७३॥ निद्रा दूर होनेपर मैं घर गया। मेरे पिता मुनिदीक्षा ले चुके थे इसलिए मेरी माता और स्त्री बहुत दुःखी थीं। वे विलख-विलखकर रोने लगीं उन्हें देख मैं भी बहुत दुःखी हुआ ॥७४।। तदनन्तर माता और स्त्रीको धैर्य बंधाकर तथा स्त्रीके आभूषण हाथमें ले व्यापारके निमित्त मैं अपने मामाके साथ उशीरावर्त देश आया ॥७५॥ वहां कपास खरीदकर बेचनेके लिए मैं ताम्रलिप्त नगरको ओर जा रहा था कि भाग्य और समयकी प्रतिकूलताके कारण वह कपास दावानलसे बोचमें ही जल गया ॥७६।। मैंने. मामाको वहीं छोड़ा और घोड़ापर सवार हो मैं पूर्व दिशाको ओर चला परन्तु घोड़ा बीचमें ही मर गया इसलिए पैदल चलकर थका-मांदा प्रियंगुनगर पहुंचा ॥७७|| उस समय प्रियंगुनगरमें मेरे पिताका मित्र सुरेन्द्रदत्त नामका सेठ रहता था। उसने मुझे देखकर बड़े सुखसे रखा और कुछ दिन तक मैंने वहाँ विश्राम किया ।।७८॥ वहाँसे मैं समुद्रयात्राके लिए गया सो छह बार मेरा जहाज १. नाथश्चारुदत्तो वियोजकः म.। २. अन्यासक्ता-म. । ३. नि:क्रान्त म. । ४. कृतरोदनीम् म.। ५. प्रियाया अलंकारा हस्ते यस्यासौ।
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