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सप्तमः सर्गः
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एतैरप्यष्टवालारेकमेकाग्रमानसैः । कर्मभूभिमनुष्याणां बालाग्रमिति भासितम् ॥३९॥ तैरष्टाभिर्मवेल्लिक्षा तामि' का तथाष्टभिः । यूकाभिस्तु यवोऽष्टाभिर्यवैरष्टाभिरङ्गलम् ॥४०॥ उत्सेधाङ्गुलमेतत्स्यादुत्सेधोऽनेन देहिनाम् । अल्पावस्थितवस्तूनां प्रमाणं च प्रगृह्यते ॥४१॥ प्रमाणाङ्गुलमेकं स्यात् तत्पञ्चशतसंगुणम् । प्रथमस्यावसर्पिण्यामङ्गुलं चक्रवर्तिनः ॥४२॥ बोध्यं यथास्वमुत्सेधव्यासादि महतः पुनः । द्वीपसागरशैलादेः प्रमाणाङ्गलसंमितम् ॥४३॥ स्वे स्वे काले मनुष्याणामङ्गलं स्वाङ्गुलं मतम् ।.मीयते तेन तच्छत्रभृङ्गारनगरादिकम् ॥४४॥ त्रिविधाङ्गलषटकः स्यात् पादः पादद्वयं पुनः । वितस्तिस्तद्वयं हस्तस्तद्वयं किल्कुरिष्यते ॥४५॥ दण्डः किष्कुद्वयं दण्डः धनाड्या समा मताः । अष्टौ दण्डसहस्राणि योजनं परिभाषितम् ॥४६॥ प्रमाणयोजनव्यासस्वावगाहं विशेषवत् । त्रिगुणं परिवेषेण क्षेत्रं पर्यन्तमित्तिकम् ॥४७॥ सप्ताहान्ताविरोमाओरापूर्य कठिनीकृतम् । तदुद्धार्यमिदं पल्यं व्यवहाराख्यमिष्यते ॥४८॥ एकैकस्मिस्ततो रोम्नि प्रत्यब्दशतमुद्धते । यावताऽस्य क्षयः कालः पल्यं व्युपत्तिमात्रकृत् ॥४९॥ असंख्येयाब्दकोटीन समयै रोमखण्डितम् । प्रत्येकं पूर्वकं तरस्यात्पल्यमुद्धारसंज्ञकम् ॥५०॥
एक संज्ञा-संज्ञा कही गयी है, आठ संज्ञा-संज्ञाओंका एक त्रुटिरेणु प्रकट किया गया है ॥३८॥ [आठत्रुटिरेणुओंका एक त्रसरेणु, आठ त्रसरेणुओंका एक रथरेणु, आठ रथरेणुओंका एक उत्तम भोगभूमिज मनुष्यके बालका अग्रभाग, उत्तमभोगभूमिज मनुष्यके आठ बालाग्रभागोंका एक मध्यमभोगभूमिज मनुष्यका बालाग्र और आठ मध्यमभोगभूमिज मनुष्यके बालारोंका एक जघन्य भोगभूमिज मनुष्यका बालाग्र होता है ] जघन्य भोगभूमिज मनुष्योंके आठ बालानोंका एक कर्मभूमिज मनुष्यका बालाग्र होता है, इन आठ बालागोंकी एक लीख, आठ लोखोंका एक जूंआ, आठ जुओंका एक जो और आठ जी का एक उत्सेधांगुल होता है । इस उत्सेधांगुलसे जीवोंके शरीरकी ऊंचाई और छोटी वस्तुओंका प्रमाण ग्रहण किया जाता है ॥३९-४१॥ उत्सेधांगुलमें पांच सौका गुणा करनेपर एक प्रमाणांगुल होता है। यह प्रमाणांगुल अवसर्पिणीके प्रथम चक्रवर्तीका अंगुल है ॥४२॥ इस अंगुलसे बड़े-बड़े द्वीप, समुद्र आदिकी ऊंचाई, चौड़ाई आदि यथायोग्य जानी जाती है ।।४३॥ अपने-अपने समयमें मनुष्योंका जो अंगुल है वह स्वांगुल माना गया है। इसके द्वारा छत्र, कलश तथा नगर आदिका विस्तार नापा जाता है ॥४४॥ छह अंगुलोंका एक पाद होता है, दो पादोंकी एक वितस्ति, दो वितस्तियोंका एक हाथ और दो हाथोंका एक किष्क होता है ।।४५।। दो किष्कुओंका एक दण्ड, धनुष अथवा नाड़ी होती है, आठ हजार दण्डोंका एक योजन कहा गया है ।।४६||
एक ऐसा क्षेत्र ( गतं ) बनाया जाये जो एक प्रमाण योजन बराबर लम्बा-चौड़ा तथा गहरा हो, जिसकी परिधि इससे कुछ अधिक तिगुनी हो तथा जिसके चारों तरफ दीवालें बनायी गयी हों ।।४७|| इस क्षेत्रको एकसे लेकर सात दिन तककी भेड़के बालोंके ऐसे टुकड़ोंसे जिनके कि दूसरे टूकड़े न हो सकें ऊपर तक कूट-कूटकर भरा जाये। इस गतंको व्यवहारपल्य कहते हैं ॥४८॥ सौ-सौ वर्षके बाद एक-एक बालका टुकड़ा उस गतसे निकालनेपर जितने समयमें वह खाली हो जाये उतने समयको व्यवहारपल्योपम काल कहते हैं ।। ४९।। तदनन्तर उन्हीं बालके टुकड़ोंमें प्रत्येक टुकड़ेके, असंख्यात करोड़ वर्षों में जितने समय हैं उतने टुकड़े बुद्धिसे कल्पित टुकड़ोंसे पूर्वोक्त प्रमाणवाले गतंको भरा जाये। इस भरे हुए गर्तको उद्धारपल्य कहते हैं और
१. रोमखण्डितैः म., .. * कोष्ठकान्तर्गत भावको सूचित करने वाले इलोक सम्पादनके लिए प्राप्त चारों हस्तलिखित तथा एक मुद्रित पांचों प्रतियोंमें नहीं हैं परन्तु हैं आवश्यक । इसलिए उनका प्रासंगिक अनुवाद दिया गया है।
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