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हरिवंशपुराणे चावर्तिश्रियो मर्ता बिभत्तीन्द्रस्य विभ्रमम् । जातु शौर्य पुरोद्याने गन्धमादननामनि ॥२९॥ रात्रौ प्रतिमया तस्थौ सुप्रतिष्ठः प्रतिष्ठितः । पूर्ववैराद्यतेस्तस्य चक्रे यक्षः सुदर्शनः ॥३०॥ अग्निपातं महावात मेधवृष्ट्यादिदुःसहम् । उपसर्ग स जित्वाप केवलं 'घातिघात कृत् ॥३१॥ तद्वन्दनार्थमिन्द्रौघाः सौधर्माद्याश्चतुर्विधैः । देवैः सह समागत्य तेऽर्चयित्वा ववन्दिरे ॥३२॥ वृष्णिरप्यागतो मक्त्या पुत्रदारबलान्वितः । संपूज्यानम्य सौम्यं तं निजभूमावुपाविशत् ॥३३॥ सावधाने स्थिते धर्मदत्तकणे कृताञ्जलौ । जगजने जगादेत्थं सुप्रतिष्टमुनीश्वरः ॥३४॥ धर्मास्त्रिवर्गनिष्पत्तिस्त्रिषु लोकेषु माषिता । ततस्तामिच्छता कार्यः सततं धर्मसंग्रहः ॥३५॥ धर्मो धामनि संधत्ते शर्माधारे शरीरिणम् । निर्मितो वाङ्मनःकायकर्ममिः शुमवृत्तिमिः ॥३६॥ धर्मो मङ्गलमुत्कृष्टमहिंसासंयमस्तपः । तस्य लक्षणमुद्दिष्टं सद्दृष्टिज्ञानलक्षितम् ॥३७॥ धर्मो जगति सर्वेभ्यः पदार्थेभ्य इहोत्तमः । कामधेनुः स धेनूनामप्यनूनसुखाकरः ॥३८॥ धर्म एव परं लोके शरणं शरणार्थिनाम् । मृत्युजन्मजरारोगशोकदुःखार्कतापिनाम् ॥३९॥ विश्वाभ्युदयसौख्यानां मनुजामरवर्तिनाम् । धर्म एव मतो हेतुर्निश्रेयससुखस्य च ॥४०॥ नामिना मापितो धर्मः समन्वन्तरवर्तिनाम् । एकविंशेन नाथेन का तीर्थस्य सांप्रतम् ॥११॥ पञ्चकल्याणपूजाना स्वर्गावतरणादिपु । भाजनं यो बभूवान तेन धर्मोऽयमीरितः ॥४२॥ महावतानि साधनामहिंसा सत्यभाष गम् । अस्तेयं ब्रह्मचर्य च निर्मूर्छा'चेति पञ्चधा ॥४॥
थे ||२६-२८|| वह चक्रवर्तीकी लक्ष्मीका स्वामी था तथा इन्द्रको शोभाको धारण करता था। कदाचित् शौर्यपुरके उद्यान में गन्धमादन नामक पर्वतपर रात्रिके समय सुप्रतिष्ठ नामक मुनिराज प्रतिमा योग लेकर विराजमान थे। पूर्व वैरके कारण सुदर्शन नामक यक्षने उन मुनिराजपर अग्निवर्षा, प्रचण्ड वाय तथा मेघवृष्टि आदि अनेक कठिन उपसर्ग किये परन्तु उन सबको जीतकर घातिया कर्मों का क्षय करनवाल उक्त मुनिराजने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया ।।२९-३१॥ उनको वन्दनाके लिए सौधर्म आदि इन्द्रों के समूह, चारों निकायके देवोंके साथ वहाँ आये और सबने भक्तिपूर्वक पूजा कर केवली भगवान्को नमस्कार किया ॥३२॥ शौर्यपुरका राजा अन्धकवृष्णि भी अपने पुत्रोंस्त्रियों तथा सेनाओंके साथ आया और भक्तिपूर्वक सुप्रतिष्ठ केवलीकी पूजा-वन्दना कर अपने स्थानपर बैठ गया ||३३।। जब जगत् के जीव धर्मोपदेश सुनने के लिए कान देकर तथा हाथ जोड़कर सावधानोके साथ बैठ गये तब सुप्रतिष्ठ मुनिराजने इस प्रकार उपदेश देना प्रारम्भ किया ॥३४॥
उन्होंने कहा कि तीनों लोकोंमें त्रिवर्गको प्राप्ति धर्मसे ही कही गयी है इसलिए उसकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको सद। धर्मका संग्रह करना चाहिए ।।३५।। शुभ दृत्तिसे युक्त मन, वचन, कायके द्वारा किया हुआ धर्म, प्राणीको सुखके आधारभूत स्थान-स्वर्ग अथवा मोक्षमें पहुंचा देता है ।।३६|| धर्म उत्कृष्ट मंगलस्वरूप है तथा सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानसे सहित अहिंसा, संयम
और तप उस धर्मके लक्षण बतलाये गये हैं ॥३७।। इस संसारमें धर्म सब पदार्थोंसे उत्तम है, यह धेनुओंमें कामधेनु है तथा उत्कृष्ट सुखको खान है ।।३८|| जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक आदिसे उत्पन्न दुःखरूपी सूर्यसे सन्तप्त शरणार्थी जनोंके लिए लोकमें धर्म ही उत्तम शरण है ॥३९|| मनुष्यों और देवोंमें पाये जानेवाले समस्त अभ्युदय सम्बन्धी सुख और मोक्ष सम्बन्धी सुखका कारण धर्म हो माना गया है ।।४०|| जो स्वर्गावतरणादिके समय पंचकल्याणक पूजाओंके पात्र थे ऐसे इक्कीसवें तीर्थंकर भगवान् नमिनाथने इस युगमें अपने समयवर्ती जीवोंके लिए जो धर्म कहा था वह इस प्रकार है ॥४१-४२।। उन्होंने मुनियोंके लिए १ अहिंसा, २ सत्य भाषण, १. घातिनां घातं करोतीति घातिघातकृत् । २. पुत्रदाराबलान्वित: म.। ३. शरीरिणाम् म. । ४. -वतिना म. । ५. अपरिग्रहः ।।
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