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हरिवंशपुराणे
रूपलावण्यसौभाग्यसागरप्लवकारिणी। हारिणो हरिणीनेत्रा कन्या व्यामोहयजगत् ॥१२५॥ कन्यार्थी च यशोऽर्थी च वीणाविधिविशारदः । ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यो जयार्थी हि जनः स्थितः॥१२६॥ मासे मासे समाजश्च भवत्यत्र कलाविदाम् । सदा जयपताकाया ही कन्या सरस्वती ।।१२७॥ समाजः समतीतश्च शस्तनेऽहनि सांप्रतम् । गुणनैकमनस्कानां पुनर्मासेन जायते ॥१२८॥ उपाध्यायः प्रसिद्धोऽत्र किन्नामा सांप्रतं पुरि । वदेति तेन पृष्टश्च जगौ सुग्रीव इत्यसौ ॥१२९॥ ऊचे गत्वेति सुग्रीवममिवाद्य गृहीच सः । गौतमो गोत्रतस्तेऽहं कर्तुमिच्छामि शिष्यताम् ॥१३०॥ अभिरूपोऽतिमुग्धोऽयमिति मत्वा दयावता । प्रतिपन्नश्च तत्रास्थावीणया हासयन् जनम् ॥१३॥ संप्राप्ते दिवसे तस्मिन् समाजोऽभूत्स पूर्ववत् । वसुदेवोऽपि संविश्य पश्यति स्म महाजनम् ॥१३॥ सा चुक्षोभ सभा लोकैर्वाद्यश्रवणवेदिभिः । कौतूहलिभिरन्यैश्च महाकोलाहलाकुलैः ॥ ३३॥ ततः कन्या समामध्यमविशद्विशदप्रमा। स्वलंकृता दिवो मध्य प्रावृषीव शतदा ॥१३४॥ वीणावाद्यविदग्धेषु जितेषु बहुषु क्रमात् । गन्धर्वसेनया यद्वन्मूर्तगान्धर्वविद्यया ॥१५॥ वसुदेवः समासीनस्ततः सोऽपि वरासने । समानीताः समानीताः वीणाः स समदूषयत् ॥१३६॥ सुघोषाख्यां ततो वीणां दत्तां गन्धर्वसेनया। सुसप्तदशतन्त्रीको संताड्य मुदितोऽवदत् ॥१३७॥ साध्वी साध्वी सुवीणेयं प्रवीणे ! दोषवर्जिता । वद गान्धर्वसेने ! ते गेयवस्तु मनीषितम् ॥१३८॥
लोग उसी कन्याके लिए यहाँ इकट्ठे मिले हैं ।।१२४।। रूप-लावण्य और सौभाग्यके सागरमें तैरनेवाली इस मृगनेत्री मनोहर कन्याने समस्त संसारको व्यामोहित कर रखा है ।।१२५॥ यहाँ जो भी ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य रहता है वह कन्याका अर्थी, यशका अर्थी, वीणा बजाने में निपुण और विजयका अभिलाषी है ॥१२६।। यहां एक-एक महीने में कलाके जानकार मनुष्योंकी सभा जुड़ती है जिससे सदा जयपताकाको हरनेवाली यही कन्यारूपी सरस्वती रहती है-सदा इसीको जीत होती है ॥१२७॥ पिछले दिन ही यहाँ गुणी मनुष्योंकी सभा जुड़ी थी अब एक माह बाद फिरसे होगी ॥१२८॥ यह सुन वसुदेवने उस ब्राह्मणसे पूछा कि इस नगरीमें संगीतका प्रसिद्ध विद्वान कौन है ? यह कहो? इसके उत्तर में ब्राह्मणने कहा कि इस समय सुग्रीव संगीतका सबसे अधिक प्रसिद्ध विद्वान् है ॥१२९॥
तदनन्तर वसुदेव घरके लोगोंकी तरह सुग्रीवके पास चले गये और उसे नमस्कार कर बोले कि मैं गौतम गोत्री हूँ तथा आपकी शिष्यता करना चाहता हूँ॥१३०॥ यह परम सुन्दर तथा भोला-भाला है यह मानकर सुग्रीवने दयापूर्वक उन्हें स्वीकार कर लिया-अपना शिष्य बना लिया। और वे अपनी उलटी-सीधो वीणासे सबको हँसाते हुए वहाँ रहने लगे ॥१३१॥ दिन आनेपर पहलेकी भांति फिरसे विद्वानोंकी सभा हई: वसदेव भी उस सभामें प्रविष्ट होकर विशाल जन-समूहको देखने लगे ॥१३२।। वह सभा बाजा सुननेकी कलासे युक्त तथा बहुत भारी कोलाहल करनेवाले अन्य कौतूहली मनुष्योंसे क्षोभको प्राप्त हो रही थी ॥१३३॥ तदनन्तर जिस प्रकार वर्षाऋतुमें बिजली आकाशके मध्यमें प्रवेश करती है उसी प्रकार निर्मल कान्तिकी धारक एवं उत्तमोत्तम आभूषणोंसे अलंकृत कन्याने सभाके मध्य में प्रवेश किया ।।१३४।। मूर्तिमती गन्धर्व विद्याके समान कन्या गन्धर्वसेनाके द्वारा जब क्रम-क्रमसे वीणा बजाने में निपुण बहुत-से विद्वान् जीत लिये गये तब वसुदेव भी उत्तम आसनपर आसीन हुए। उस समय वसुदेवको अनेक वीणाएं दी गयी पर उन सबको दोषयुक्त बता दिया ॥१३२-१३६।। अन्तमें गन्धर्वसेनाने अपनी सुघोषा नामको सतरह तारोंवाली वीणा उन्हें दी। उसे बजाकर वे प्रसन्न होते हुए बोले कि यह वीणा १. हरिणी म.। २. व्यमोहय जगत् म.। ३. हासयज्जनम् म.। ४. विद्युत् । ५. समानीताः समानीतां वीणा: म.।
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