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एकोनविंशः सर्गः गन्धर्व इव देवोऽसौ वृतो गन्धर्वकन्यया । गान्धर्वसेनया हर्षसंबन्धं जगतो व्यधात् ॥२६॥ चारुदत्तस्ततस्तुष्टो यथोक्तविधिना ततः । 'विवाहं मगधाधीश निरवतयदेतयोः ॥२६॥ सुग्रीवश्च यशोग्रोव उपाध्यायौ च कन्यके । वितीर्य वसुदेवाय नितान्तं तोषमापतुः ॥२६९॥ कलागुणविदग्धाभिस्ताभिरानकदुन्दुभिः । रामाभिरमिरामानिश्चिरं चिक्रीड तत्र सः ॥२७॥
स्रग्धरावृत्तम् लब्ध्वा लुब्धेन रन्ध्र कथमपि हरता वैरिणा खेऽतिदूरं
नीस्वा मुक्तं पतन्तं गतशरणमधः पद्मखण्डोपधानम् । कृत्वा यः शीघ्रमस्मिन्झटिति घटयति प्राज्यलाभैः पुमांसं
कत्तु भव्यस्तमेकं पथि जिनकथिते धर्मबन्धुं यतध्वम् ॥२७१॥
इत्यरिष्टनेमिप्राणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतो गान्धर्वसेनावर्णनो नाम
एकोनविंशतितमः सर्गः ॥१९॥
गन्धर्वसेनाने सभामें ही वसुदेवके गलेमें माला डालकर उनका वरण किया ॥२६६।। उस समय गन्धर्व-कन्यासे वृत गन्धर्वके समान गन्धर्वसेनासे वृत वसुदेवने समस्त जगत्को हर्षित कर दिया ।।२६७।। तदनन्तर गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! कन्याके पिता चारुदत्तने सन्तुष्ट होकर दोनोंका विधिपूर्वक विवाह कर दिया ।।२६८॥ उपाध्याय सुग्रीव और यशोग्रीव भी अपनीअपनी कन्याएँ वसदेवके लिए प्रदान कर सन्तोषको प्राप्त हए ॥२६९।। अनेक कलाओं और गणों में चतुर उन सुन्दर स्त्रियों के साथ वसुदेव वहां चिरकाल तक क्रीड़ा करते रहे ॥२७०|| लोभसे भरा वैरी विद्याधर छिद्र पा जिसे हरकर आकाशमें बहुत दूर ले गया और वहाँसे अशरण अवस्थामें जिसे कमल वन में नीचे छोड़ा ऐसे पुरुषको भी जो शीघ्र ही उत्कृष्ट लाभोंसे युक्त करता है हे भव्यजनो! तुम जिन-कथित मागंमें उस एक धर्मरूप बन्धुको प्राप्त करनेका प्रयत्न करो ॥२७ ॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें
गान्धर्वसेना कन्याका वर्णन करनेवाला उन्नीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥१९॥
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१. विवाहो मगधाधीशो (?) म. । २. वसुदेवः ।
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