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हरिवंशपुराणे
'नन्दयत्या अपि न्यासा अंशाश्चापि तथैव च । गान्धारो मध्यमचैव पञ्चमश्चैव नित्यशः ॥ २५३॥ न पड जो लङ्घनीयोंऽशो न चान्ध्रीसंचरः स्मृतः । लङ्घनं ह्यर्षभस्यात्र तच्च मन्द्रगतं स्मृतम् ॥ २५४॥ तारे चापि ग्रहे कार्यस्तथा न्यासश्च नित्यशः । कर्मारण्यास्तथा ह्यंश ऋषमः पञ्चमस्तथा ॥ २५५॥ धैवतश्च निषादोsपि ह्यपन्यासः प्रकीर्त्तितः । पञ्चमश्च भवेन्न्यासो होनस्वर्यस्तथैव च ॥ २५६॥ गान्धारस्य विशेषेण सबंतो गमनं भवेत् । कैशिक्यास्तु सपड जायाः सर्वे चैवार्षभं विना ॥ २५७ ॥ एत एत ह्युपन्यासा गान्धारः सप्तमो भवेत् । धैवते सनिषादे च न्यासः पञ्चम एव च ॥ २५८ ॥ अपन्यासः कदाचित् स ऋषभोऽभिविधीयते । व्यार्षभं षाडवं चात्र धैवतश्वर्षभं विना ॥ २५९ ॥ तथा’नौडवितं कुर्याद्वलिनश्चान्त्यपञ्चमाः । दौर्बल्यमृषभस्यात्र लङ्घनं च विशेषतः ॥ २६०॥ सषड जो मध्यमश्चात्र संचारस्तु विधीयते । यथारसं बुधैर्योज्या जातयः स्वरसंचराः ॥ २६१ ॥ इत्यादि स यथायोग्यं तथा गन्धर्वविस्तरे । सुगीते वसुदेवेन श्रोतारो विस्मयं ययुः ॥२६२॥ तुम्बुरुर्नारदः किंवा गन्धर्वः किन्नरो ह्ययम् । वीणावादनमीदृक्षं कुतोऽन्यस्येति वेदनम् ॥ २६३ ॥ विष्णुगीत क्रमदेशस्थान गीतं सुवीणया । श्रुत्वा गन्धर्वसेनाऽभूद् विस्मिता च निरुत्तरा ॥ २६४ ॥ तथा जयपताकायां वसुदेवेन संसदि । गृहीतायां समुत्तस्थौ गम्भीरः साधुनिस्वनः ॥२६५॥ अनुरागवतो व वसुदेवं स्वभावतः । कण्ठे 'कण्ठगुणं कन्या कुर्वती तस्य संसदि ॥ २६६ ॥
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स्वरका लंघन और औडवित नहीं होता ।। २५२ || जो न्यास अंश तथा अपन्यास आन्ध्री जातिके हैं वे ही नन्दयन्ती भी हैं । इसमें गान्धार, मध्यम और पंचम स्वर नित्य रहते हैं || २५३ ॥ | इसमें षड्ज स्वर लंघनीय नहीं हैं और न आन्ध्रोके समान इसमें संचार ही होता है। इसमें ऋषभ स्वरका लंघन होता है और वह मन्द्रगति के समय होता है || २५४|| तार ग्रहमें भी निरन्तर उसीके अनुरूप न्यास करना चाहिए। कर्मारवी जाति में ऋषभ, पंचम, धैवत और निषाद ये चार अंश कहे गये हैं तथा ये हो चार अपन्यास बतलाये गये हैं । इसमें पंचम न्यास होता है और वह हीनस्वयं होता है ।। २५५-२५६ ।। यहाँ गान्धार स्वरका विशेष रूप से सर्वत्र गमन होता है । षड्जा सहित कैशिकी में ऋषभको छोड़कर शेष सभी अंश और अपन्यास माने गये हैं । गान्धार और सप्तम में दो न्यास हैं परन्तु धैवत और निषाद अंशमें एक पंचम ही न्यास होता है ।। २५७ - २५८।। कभी-कभी इसमें ऋषभ भी न्यास हो जाता है । इसमें षाडव ऋषभसे रहित होता है तथा धैवत ऋषभके बिना प्रयुक्त होता है । यहाँ ओडवित नहीं करना चाहिए, अन्तिम और पंचम स्वरको बलवान् करना चाहिए तथा ऋषभको दुर्बल करना चाहिए और उसीका विशेष रूपसे लंघन करना चाहिए ।। २५९ - २६० ।। इसमें षड्ज और मध्यमका संचार किया जाता है । इस प्रकार स्वरोंमें संचार करनेवाली जातियां कहीं । विद्वान् इनका रसके अनुसार प्रयोग करें || २६१ ॥
इस प्रकार गन्धर्व शास्त्र के विस्तार के साथ जब वसुदेवने यथायोग्य उत्तम गाना गाया तब सभी श्रोता आश्चर्यको प्राप्त हो गये || २६२|| लोग कहने लगे कि यह क्या तुम्बुरु है ? या नारद है ? या गन्धर्व है ? अथवा किन्नर है क्योंकि ऐसी वीणा बजाना किसी दूसरेको कहाँ आ सकती है ? ।।२६३।। बलिको बाँधते समय नारद आदिने विष्णुकुमार मुनिका जिस रूपसे स्तवन किया था वसुदेवने वीणा बजाकर वही गाया जिसे सुनकर गन्धर्वसेना आश्चयंसे चकित एवं निरुत्तर हो गयी || २६४ || इस प्रकार जब सभामें विजयपताका वसुदेवने ग्रहण की तब चारों ओरसे 'साधु-साधु' 'ठीक-ठीक' का जोरदार शब्द गूँज उठा || १६५ || स्वाभाविक अनुरागसे भरी
१. मन्द्रयन्त्या म । २. धैवतं सनिषादे च म ग । ३. विगतम् आर्षभं यस्मात् तत् । ४ तथा चौडवितं तिश्नात्र पञ्चमः म । ५. विस्तारे म । ६ मालाम् ।
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