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हरिवंशपुराणे निषादश्च 'निषादांशो गान्धारश्चर्षभस्तथा । एवमेते ह्युपन्यासा न्यासश्चैव तु सप्तमः ॥२२४॥ धैवस्या अपि कर्त्तव्यौ षाडवौडवितो तथा । तद्वच्च लङ्घनीयौ तु बलवन्तौ तथैव च ॥२२५।। अंशास्तु षड जकैशिक्या ज्ञयौ गान्धारपञ्चमौ । उपन्यासाश्च विज्ञेयाः षड जपञ्चममध्यमाः ॥२२६॥ गान्धारश्च भवेन्न्यासो हीनस्वयं नवात्र तु । दौर्बल्यं चात्र कर्तव्यं धैवतस्यर्षमस्य च ॥२२७॥ षड जश्च मध्यमश्चैव निषादो धैवतस्तथा । षड जगोदाच्यवांशास्तु न्यासश्चैवात्र मध्यमः ॥२२८॥ उपन्यासस्तथा चैव धैवतः षडज एव तु । परस्परांशातिगामश्छन्दतश्च विधीयते ॥२२॥ पञ्चमर्षभहीनं तु पञ्चस्वयं तु तत्र वै । पड जश्चाप्यर्षभश्चैव गान्धारश्च बली भवेत् ॥२३०॥ षडजमध्यास्तु सर्वेषामुपन्यासास्तथैव च । षड जश्च सप्तमश्चैव न्यासौ कार्यों प्रयोत्कृभिः ॥२३१।। गान्धारसप्तमोपेतं पञ्चस्वयं च तद भवेत् । षाडवः सप्तमोपेतः कार्यश्चैवात्र योगतः ॥२३२॥ सर्वस्वराणां संचार इष्टवस्तु विधीयते । पड जग्रानाश्रया येताः विज्ञ याः सप्त जातयः ॥२३३॥ गान्धार्याः पञ्चधैवांशा धैवतर्षभर्जिताः । पड जश्व पञ्चमश्चैव ह्युपन्यासाः प्रकीर्तिताः ॥२३४॥ गान्धारोऽत्र भवेन्न्यासो पाडवर्षभसंभवः । धैवतर्षभहीनं च तथा चौडवितं भवेत् ॥२३५॥ लहनीयौ च तो नित्यमार्षमाद्धवतं व्रजेन् । इति गान्धारविहितः स्वरन्यासांशसंचरः ॥२३६।। लक्षणं रकगान्धार्या एवं तत्समतां गतम् । बलवांश्चैव तत्र स्याद्रवतः पञ्चमस्तथा ॥२३॥ गान्धारपड जयोश्चात्र संचारो ह्युमयं विना । उपन्यासः समव्यस्तु मध्यमस्तु विधीयते ।।२३८॥
गान्धारोदीच्यवायास्तु विज्ञ यौ षड्जमध्यमौ । सप्तमश्च ततोऽन्यत्र षट्स्वर्यमृषभं विना ।।२३९।। गान्धार भी आरोहणीय तथा लंघनीय दोनों प्रकारके हैं ॥२२३॥ निषाद, निषादका अंश, गान्धार और ऋषभ इस प्रकार ये उपन्यास हैं परन्तु सप्तम स्वर न्यास ही होता है ॥२२४।। धेवती जातिमें भी षाडव और औडवितका प्रयोग करना चाहिए। ये दोनों ही पूर्वकी भाँति लंघनीय तथा आरोहणीय होते हैं ।।२२५।। षड्ज कैशिकीके गान्धार और पंचम ये ग्रहांश हैं तथा षड्ज, पंचम और मध्यम ये उपन्यास हैं ।।२२६।। यहाँपर गान्धार चाहे हीन स्वरवाला हो चाहे अधिक स्वरवाला हो न्यास होता है साथ ही इसके यहाँ धैवत तथा ऋषभ स्वर में दुर्बलताका प्रयोग करना चाहिए ।।२२७।। षड्ज, मध्यम, निषाद और धैवत .. ये षड्जोदीच्यवाके अंश हैं, मध्यम न्यास हैं और धैवत तथा षड्ज उपन्यास हैं। यहाँ छन्दके अनुसार परस्परके अंशोंमें व्यतिक्रम भी हो जाता है ।।२२८-२२९|| जहाँ पंचम और ऋषभको छोड़कर शेष पाँच स्वर होते हैं वहाँ षड़ज, ऋषभ और गान्धार बलवान होते हैं ॥२३०॥ षडज और मध्यम सबके उपन्यास हैं तथा षड्ज और सप्तम सबके न्यास हैं ॥२३१॥ पंचस्वयं गान्धार और सप्तम स्वरसे युक्त होता है तथा षाडवको सप्तम स्वरसे युक्त अवश्य करना चाहिए ।।२३२।। इन समस्त स्वरोंका संचार इच्छानुसार किया जाता है। ये सात जातियाँ षड्ज ग्रामके आश्रय रहती हैं ।।२३३।। गान्धारी जातिमें धैवत और ऋषभको छोड़कर शेष पाँच ही अंश रहते हैं । षड्ज और पंचम उपन्यास होते हैं ।।२३४।। इसमें षाडव और ऋषभसे उत्पन्न गान्धार न्यास होता है तथा धैवत और ऋषभसे रहित औडवित होता है ॥२३५।। यहाँ ऋषभ और धैवत नियमसे लंघनीय माने गये हैं और जब लंघन होता है तो ऋषभसे धैवतकी ओर ही होता है। इस प्रकार गान्धारी जातिके स्वर न्यास और अंशोंके संचारका वर्णन किया ॥२३६।। रक्तगान्धारीका लक्षण इसी-गान्धारीके समान होता है। विशेषता यह है कि इसमें धैवत और पंचम स्वर बलवान् होते हैं ॥२३७॥ यहाँ धेवत और पंचमके बिना गान्धार और षड्जका संचार होता है, तथा मध्य सहित मध्यम उपन्यास होता है ॥२३८॥ गान्धारोदोच्यवामें षड़ज, मध्यम और सप्तम १. निषादोऽसौ म. । २. पञ्चमं यत्त म. । ३. गान्धारं सप्तमोपेतं म.। ४. यवस्वयं ग.। ५. "गान्धारसप्तमोपेतं पञ्चस्वयं विधीयते" नाट्यशास्त्रे। ६. उपन्यासो मध्यमस्तु म.।
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