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हरिवंशपुराणे अन्तरस्वरसंयोगो नित्यमारोहिसंश्रयः । कार्योऽह्यल्पविशेषेण नावरोही कदाचन ॥१२॥ क्रियमाणोऽवरोही स्यादल्पो वा यदि वा बहु । याति रागं श्रुतिश्चैव नयते स्वं ततः स्वरः [जातिरागं श्रुतिञ्चैव नयते त्वन्तरस्वरः] ॥१७॥
षाड्जी स्यादार्षमी चैव धैवत्यथ निषादजा।
सुषड्जा दिव्य [सुषड्जोदीच्य] वा चैव तया वै षड्जकैशिकी ॥१७॥ षड्जमध्या तथा चैव षड्जग्रामसमाश्रया'। जातयोऽष्टौ दशोद्दिष्टा मध्यमग्रामजाश्रिताः ॥१७५॥
गान्धारी मध्यमा चैव गान्धारी दिव्यवा [ गान्धारोदीयवा ] तथा । पञ्चमी रक्तगान्धारी तथान्या रक्तपञ्चमी ॥१७६॥ मध्यमोदिव्यवा [ मध्यमोदीच्यवा] चैव नन्दयन्ती तथैव च ।
कर्मारवी च विज्ञेया तथान्ध्री कैशिकी तथा ॥१७७॥ स्वरसाधारणगतास्तिस्रो ज्ञेयास्तु जातयः । मध्यमा षड़जमध्या च पञ्चमी चेति सूरिभिः ॥१८॥ ताश्चापि द्विविधाः शुद्धा विकृताश्च प्रकीर्तिताः । अपरस्परनिष्पक्ष ज्ञेयाश्चैव तु जातयः ॥१७९॥ अपृथग्लशणैर्युक्ता द्वैग्रामिक्यः स्वरप्लुताः । चतस्रो जातयो नित्यं ज्ञेयाः सप्तस्वरा बुधैः ॥१८॥ चतस्रः षटस्वराश्चान्या दश पञ्चस्वराः स्मृताः । मध्यमोदीच्यवा चैव तथा वैषडजकैशिकी ॥१८॥
होनेवाली उनचास हैं ॥१७१॥ अन्तर स्वरका संयोग सदा आरोही अवस्थामें ही करना चाहिए अवरोही अवस्थामें थोड़ा या बहुत किसी भी रूपमें कभी भी नहीं करना चाहिए ॥१७२॥ क्योंकि यदि अवरोही अवस्थामें थोड़ा या बहुत अन्तर स्वरका संयोग किया जाता है तो उस समय अन्तर स्वर जातिके राग और श्रुति दोनोंको समाप्त कर देता है ॥१७३।। अब दोनों ग्रामोंकी जातियोंका वर्णन करते हैं, उनमें षड्ज ग्रामसे सम्बन्ध रखनेवाली १ षाड्जी, २ आर्षभी, ३ धैवती, ४ निषादजा, ५ सुषड्जा, ६ उदीच्यवा, ७ षड्जकैशिकी और ८ षड्जमध्या ये आठ जातियाँ हैं एवं नीचे लिखी दश जातियां मध्यमग्रामके आश्रित हैं-१ गान्धारी, २ मध्यमा, ३ गान्धारोदीच्यवा, ४ पंचमी, ५ रक्तगान्धारी, ६ रक्तपंचमी, ७ मध्यमोदीच्यवा, ८ नन्दयन्ती, ९ कर्मारवी, १० आन्ध्री, ११ कैशिकी। दोनों ग्रामोंकी मिलाकर अठारह जातियां होती हैं ॥१९४-१७७॥ इन जातियों में मध्यमा, षड्जमध्या और पंचमी ये तीन जातियाँ साधारण स्वरगत हैं ॥१७८॥ ये जातियां शुद्ध और विकृतके भेदसे दो प्रकारकी कही गयी हैं । जो परस्परमें मिलकर उत्पन्न नहीं हुई हैं तथा पृथक-पृथक् लक्षणोंसे युक्त हैं वे शुद्ध कहलाती हैं और जो समान लक्षणोंसे युक्त हैं वे विकृत कहलाती हैं । विकृत जातियां दोनों ग्रामोंकी जातियोंसे मिलकर बनती हैं तथा दोनोंके स्वरोंसे आप्लुत रहती हैं। इन जातियोंमें चार जातियां सात स्वरवाली, चार जातियाँ छह स्वरवाली और शेष दश जातियाँ पाँच स्वरवाली कही गयी हैं। मध्यमो. दीच्यवा, षडजकैशिकी, कर्मारवी और गान्धारपंचमी ये चार जातियां सात स्वरवाली हैं। १. तत्र मूर्च्छनातानाश्चतुरशीतिः । तत्रैकोनपञ्चाशत् षट्स्वराः, पञ्चत्रिंशत् पञ्चस्वराः । नाट्यशास्त्र पृ. ३२० 'मूर्च्छना एव तानाः स्युः शुद्धा आरोहणाश्च ताः' । ( नारदपुराणे ) 'विस्तार्यन्ते प्रयोगाय मूर्च्छनाः शेषसंश्रयाः । तानास्तेषनपञ्चाशत् सप्तस्वरसमुद्भवाः ॥ (संगीतदामोदरे १-३५)। २. अन्तरस्वरसंयोगो नित्यमारोहिसंश्रयः । कार्यस्त्वल्पो विशेषेण नावरोही कदाचन ॥ क्रियमाणोऽवरोही स्यादल्पो वा यदि वा बहू ।' जातिरागं श्रुतिश्चैव नयन्ते त्वन्तरे स्वराः ॥३५।। नाटयशास्त्र अध्याय २८ । ३. नाट्यशास्त्रे तु षड्जग्रामाश्रिताः सप्त, मध्यमग्रामाश्रितास्त्वेकादश जातयो निर्दिष्टाः । ( श्लोका अष्टाविंशाध्याये ३६-४२)। ४. स्वरसाधारणगतास्तिस्रो ज्ञेयास्तु जातयः । मध्यमा पञ्चमी चैव षड्जमध्या तथैव च ॥३६॥ ना. शा. अ.२८ ।
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