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एकोनविंशः सर्गः
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मृदूपवीणयाम्येषामादेशस्थानमयतः । विदुषां दीयतां मेऽद्य गेयवस्तुनि पण्डिते ॥१३९॥ साऽऽह विष्णुकुमारस्य बलिबन्धनकारिणः । त्रिविक्रमकृतौ गोतं हाहातुम्बुरुनारदैः ॥१४॥ यत्तदद्य त्वया वस्तु वाद्यतां वाद्यविद् यदि । पुराणप्रतिबद्धं हि गेयवस्तु प्रशस्यते ॥१४१॥ 'ततं चाप्यवनद्धं च धनं सुषिरमित्यपि । यथास्वं लक्षणैर्युक्तमातोद्यं स्याच्चतुर्विधम् ॥१४२॥ ततं तन्त्रीगतं तेषामवनद्धं हि पौष्करम् । घनं तालस्ततो वंशस्तथैव सुषिराख्यया ॥१४३॥ प्राणिप्रीतिकरं प्रायः श्रवणेन्द्रियतपणात् । गान्धर्वदेहसंबद्धं ततं गान्धर्वमीरितम् ॥१४॥ वीणा वंशश्च गानं च तस्य योनिरितीरितम् । गान्धर्व त्रिविधं चैतत्स्वरतालपदे गतम् ॥१४५॥ वैणाश्चापि च शारीरा द्विविधास्तु स्वराः स्मताः । विधानं लक्षणं चापि तेषामिति निरूपितम् ॥१४६।।। अति[श्रुतिवृत्तिस्वरग्रामवर्णालंकारमूर्च्छनाः । धातुसाधारणाद्याचे दारुवोणास्वराः स्मृताः ॥१४॥ जातिवर्णस्वरग्रामस्थानसौधारण[साधारण] क्रियाः । सालंकारविधिश्चायं शारीरस्वरगोचरः ॥१४॥ अति जाति तद्धितवृत्तानि संधिस्वरविभक्तयः । नामाख्यातोपसर्गाद्या वर्णाद्यास्ते पदे विधिः ॥१४९।।
आवापश्चापि निःक्रामो विक्षेपश्च प्रवेशनम् । शम्यातील परावतः संनिपातः सवस्तुकः ॥१५ ॥ बहुत अच्छी है, बहुत अच्छी है, हे चतुरे ! यह वीणा निर्दोष है। हे गन्धर्वसेने ! कह तुझे कौनसी गेय वस्तु पसन्द है ? तू गेय वस्तुओंमें पण्डित है अतः मुझे आदेश दे मैं इन विद्वानोंके आगे कोमल-कान्त वीणा बजाता हूँ ॥१३७-१३९॥ इसके उत्तर में गन्धर्वसेनाने कहा कि बलिको बांधनेवाले विष्णुकुमार मुनिने जब अपनी तोन डगोंका कर्तव्य दिखाया था तब हाहा, तुम्बुरु तथा नारदने जो गेय वस्तु गायी थो यदि आप वाद्य विद्याके जानकार हैं तो वही वस्तु आज बजाइए क्योंकि पुराणसे सम्बन्ध रखनेवाली गेय वस्तु ही प्रशंसनीय होती है ॥१४०-१४१।। गन्धर्वसेनाका आदेश पाकर वसुदेव संगीत विद्याका निम्नप्रकार वर्णन करने लगे
१. तत, २ अवनद्ध, ३ घन और ४ सुषिरके भेदसे बाजे चार प्रकारके हैं। ये सभी बाजे यथायोग्य अपने-अपने लक्षणोंसे युक्त हैं ॥१४२।। जो तारसे बजते हैं ऐसे वीणा आदि तत कहलाते हैं। जो चमड़ेसे मढ़े जाते हैं ऐसे मृदंग आदि अवनद्ध कहलाते हैं। काँसेके झांझ, मजीरा आदि घन कहलाते हैं और बांसुरी आदिको सुधिर कहते हैं ।।१४३।। इनमें तत नामका वादित्र कर्णइन्द्रियको तृप्त करनेवाला होनेसे प्रायः प्राणियोंके लिए अधिक प्रीति उपजानेवाला है तथा गन्धर्व शरीरके साथ सम्बद्ध होनेसे गान्धर्व नामसे प्रसिद्ध है ।।१४४|| गान्धर्वकी उत्पत्तिमें वीणा, वंश और गान ये तीन कारण हैं तथा स्वरगत, तालगत और पदगतके भेदसे वह तीन प्रकारका माना गया है ॥१४५।। वैण और शारीरके भेदसे स्वर दो प्रकारके माने गये हैं और उनके भेद तथा लक्षण इस प्रकार कहे गये हैं ॥१४६॥ श्रुति, वृत्ति, स्वर, ग्राम, वर्ण, अलंकार, मच्छना, धातु और साधारण आदि वैण स्वर माने गये हैं और जाति, वर्ण, स्वर, ग्राम, स्थान, साधारण क्रिया और अलंकार विधि ये शारीर स्वरके भेद कहे हैं ॥१४७-१४८|| जाति, तद्धित, छन्द, सन्धि, स्वर, विभक्ति, सुबन्त, तिङन्त, उपसर्ग तथा वर्ण आदि पदगत गान्धर्वको विधि हैं और आवाप, निष्काम, विक्षेप, प्रवेशन, शम्याताल, परावर्त, सन्निपात, सवस्तुक १. ततं चैवावनद्धं च घनं सुषिरमेव च । चतुर्विधं तु विज्ञेयमातोद्यं लक्षणान्वितम् ॥१॥
ततं तन्त्रीगतं ज्ञेयमवनद्धं तु पोस्करम् । धनं तालस्तु विज्ञेयः सुषिरो वंश उच्यते ॥२॥ नाट्य-शास्त्र, अ. २८ २. 'ज्याश्च' ख. पुस्तके। ३. सौवरणक्रियाः ख., म. । सोवारण- क.। ४. आवायश्चापि म., घ.। ५. तालप्रक्षेपः आवापः । ६. तालनिष्कासनं क्रमः। ७. तिर्यक्चालनं विक्षेपः । ८. पुनस्तत्र प्रवेशः प्रवेशनम् । ९. उभयोस्तालयोः सदृशो शब्दवृत्तिः शम्यातालम । १०. वामहस्तेन दक्षिणतालास्ताटनं परावतः । ११. संनिपातः शब्दसाम्यम् । १२. सवस्तुकः सलघुकः ।
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