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अष्टादशः सर्गः
२७३
प्रासुकद्रव्ययोगेन वैयावृत्योद्यतस्य हि । संयतस्यापि नो बन्धो निर्जरैव तु जायते ॥१४२॥ 'धर्मसाधनमाद्यं हि शरीरमिह देहिनाम् । तस्य धारणमाधेयं यथाशक्ति च शासने ।।१४३।। सम्यग्दृष्टिरशेषोऽपि मन्दग्लानादिरादरात् । पर्युपासनया नित्यमुपचर्यः सुदृष्टिना ॥१४॥ प्रतीकारसमर्थोऽपि यत्सुदृष्टिमुपेक्षते। व्याधिक्लिष्टमसौ नष्टः सम्यक्त्वस्यापबृंहकः ॥१४५।। यन्नोपयुज्यते यस्य धनं वा वपुरेव वा । स्वशासनजने तेन तस्य किं बन्धहेतुना ॥१४६।। तदेव हि धनं तस्य वपुर्वा सर्वथा मतम् । यद्यस्य शासनस्थानां यथास्वमुपयुज्यते ॥१४॥ शक्तस्योपेक्षमाणस्य सददष्टिजनमापदि । का वा कठिनचित्तस्य जिनशासनभक्तता ॥१४८॥ सम्यक्त्वशुद्विशुद्ध तु जैने भक्तिविलोपने । पुंसो मिथ्याविनीतस्य का वा दर्शनशुद्धिता ॥१४९।। बोधिलाभनिमित्ताया दृष्टिशुद्धेविबाधने । पुनर्बोधिपरिप्राप्तिदुर्लभा मवसंकटे ।। १५०॥ बोधिलाभपरिप्राप्तावसत्यां मुक्तिसाधनम् । कुतो वृत्तमभावेऽस्य कुतो मुक्तिस्तदर्थिनः ॥१५॥ मुक्त्यमावे कुतः सौख्यमनन्तमनपायि च । सौख्याभावे कुतः स्वास्थ्यं स्वास्थ्यामावे कुतः कृती॥१५२॥ अतः सर्वात्मना भाव्यं यथास्वं स्वहितैषिणा । वैयावृत्योद्यतेनाऽत्र यतिना गृहिणा तथा ॥१५३॥ शरीरं दर्शनं ज्ञानं चारित्रं परमं तपः । वैयावृत्यकृता सर्व स्थापितं हि परात्मनोः ॥१५॥ शासनस्थितिविद् विद्वानुपकुर्वन् परं स्वयम् । निरपेक्षोपकारो वः परात्मलघुमोक्षमाग ॥१५५॥
प्रासुक द्रव्यके द्वारा वैयावृत्य करने में तत्पर रहनेवाले मुनिको भी उससे बन्ध नहीं होता किन्तु निर्जरा ही होती है ।।१४२।। इस संसारमें शरीर ही प्राणियोंका सबसे पहला धर्मका साधन है इसलिए यथाशक्ति उसकी रक्षा करनी चाहिए। यह आगमका विधान है ॥१४३।। मन्द शक्ति अथवा बीमार आदि जितने भी सम्यग्दृष्टि हैं, सम्यग्दृष्टि मनुष्यको उन सबको वैयावृत्य द्वारा निरन्तर सेवा करनी चाहिए॥१४४।। जो प्रतिकार करने में समर्थ होकर भी रोगसे दुःखी सम्यग्दृष्टिकी उपेक्षा करता है वह पापी है तथा सम्यग्दर्शनका घात करनेवाला है ।।१४५।। जिसका धन अथवा शरीर सहधर्मी जनोंके उपयोगमें नहीं आता उसका वह धन अथवा शरीर किस कामका? वह तो केवल कर्मबन्धका ही कारण है ॥१४६॥ जिसका जो धन अथवा जो शरीर सहधर्मी जनोंके उपयोगमें आता है यथार्थमें वही धन अथवा वही शरीर उसका है ॥१४७॥ जो समर्थ होकर भी आपत्तिके समय सम्यग्दृष्टिको उपेक्षा करता है उस कठोर हृदय वालेके जिनशासनकी क्या भक्ति है ? कुछ भी नहीं है ॥१४८।। जो सम्यग्दर्शनको शुद्धतासे शुद्ध सहधर्मीकी भक्ति नहीं करता है वह झूठ-मूठका विनयी बना फिरता है उसके सम्यग्दर्शनको शुद्धि क्या है! ॥१४९।। यदि बोधिको प्राप्तिमें निमित्तभूत दर्शनविशुद्धिमें बाधा पहुँचायी जाती है तो फिर इस संसारके संकटमें पुनः बोधिकी प्राप्ति दुर्लभ ही समझनी चाहिए ॥१५०।। यदि बोधिकी प्राप्ति नहीं होती है तो मुक्तिका साधनभूत चारित्र कैसे हो सकता है ? और जब चारित्र नहीं है तब मुक्तिके अभिलाषी मनुष्यको मुक्ति कैसे मिल सकती है ? ॥१५१।। मुक्तिके अभावमें अनन्त एवं अविनाशी सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ? सुखके अभावमें स्वास्थ्य कैसे मिल सकता है ? और स्वास्थ्यके अभावमें यह जीव कृत्यकृत्य कैसे हो सकता है ? ॥१५२॥ इसलिए आत्महित चाहनेवाला चाहे मुनि हो चाहे गृहस्थ, उसे सब प्रकारसे अपनो शक्तिके अनुसार वैयावृत्य करने में उद्यत रहना चाहिए ॥१५३॥ जो मनुष्य वैयावृत्य करता है वह अपने तथा दूसरेके शरीर, दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवं उत्तम तप आदि सभी गुणोंको स्थिर करता है ॥१५४।। जिन-शासनकी रीतिको जाननेवाला जो विद्वान् परका उपकार करता हुआ स्वयं प्रत्युपकारको अपेक्षासे रहित होता है वह शीघ्र ही स्वपर आत्माका मोक्ष प्राप्त १. 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' कुमारसम्भवे । २. हानिकारकः । ३. बन्धुहेतुना म., क. । ४. शासनस्थानं म.। ५. दर्शनज्ञानं म.।
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