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एकोनविंशः सर्गः
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स्नानमोजनवेलाया मा कृतास्त्वमतिक्रमम् । अद्य प्रभृति शुद्धान्तवनान्तेष्वारमाधुना ॥३७॥ इति राजानु भक्तमनुशिष्य शिवागृहम् । सप्तकक्षापरिक्षेपि तं गृहीत्वा करेऽविशत् ॥३८॥ स्नात्वा भुक्त्वा स तेनामा कृतरक्षाविधिः स्वयम् । तदलक्षितसंकेतो बभूव नृपतिः सुखी ॥३९॥ कुमारोऽपि शिवादेव्याः स वनोद्यानभूमिषु । क्रीडन्नाटयसुगीतायैर्विनोदैश्चावसत्सदा ॥४०॥ एकदा तु शिवादेव्यै समालम्मनमेकया। कुब्जया नीयमानं तां खलीकृत्य जहार सः ॥४१॥ सा जगाद ततो रुष्टा कुमार! तव चेष्टितैः । ईदृशैरेव संप्राप्तो बन्धनागारमीदृशम् ॥४२॥ स तां पप्रच्छ शङ्कावान् कुब्जे ! किमिति जल्पितम् । न्यवेदयच्च सा तस्मै यथावन्नृपमन्त्रणम् ॥४३॥ ततः स्वं वञ्चनं ज्ञात्वा विमनाः स नृपं प्रति । सद्मनश्छद्मना दक्षो निरगान्नगरात्ततः ॥४४॥ गत्वैकानुचरो मन्त्रसाधनव्याजवान्निशि । श्मशाने चैकदेशस्थं तं कृत्वोत्तरसाधकम् ॥४॥ किंचिद्रे निवेश्यैकं मृतकं भूषणेनिजैः । विभूष्य चितिकामध्ये निक्षिप्य वदति स्म सः ॥४६॥ आर्यस्तातसमो राजा पौराश्च पिशुनाश्चिरम् । सुखं जीवन्तु संतुष्टाः प्रविष्टोऽहं हुताशनम् ॥४७॥ इत्युक्त्वोच्चैः प्रधाव्यासौ प्रदाग्निप्रवेशनम् । अन्तर्धानं गतो दूरं भुजिष्योऽपि पुरं ततः ॥४८॥ वसुदेवस्य वृत्तान्ते तदभृत्येन निवेदिते । सपोरान्तःपुरभ्रातृवृष्णिवर्गस्तदा नृपः ॥४९॥
इतनी देर तुमने किस लिए की ? वायु तथा घामसे तुम मुरझा गये हो, तुम्हारे शिरका सेहरा भी कान्तिहीन हो गया है, तुम घूमनेके ऐसे शौकीन हो कि शरीरके खेदकी परवाह न कर घूमते रहते हो ? अब आजसे स्नान तथा भोजनके समयका उल्लंघन नहीं करना तथा आजसे अन्तःपुरके भीतर जो बगीचा है उसीमें क्रीड़ा करना ।।३४-३७|| इस प्रकार राजा समुद्रविजय भक्तिसे भरे हुए छोटे भाई वसुदेबको समझाकर तथा हाथ पकड़कर सात कक्षाओंसे घिरे हए शिवादेवीके महलमें प्रविष्ट हुए ॥३८॥ वहां वसुदेवके साथ ही उन्होंने स्नान किया, भोजन किया तथा 'वे वहीं रहे' इस बातकी स्वयं ऐसी व्यवस्था कर दो कि जिसका वसुदेवको कुछ भी संकेत मालूम नहीं हआ। यह सब कर राजा समद्रविजय सुखी हए-निश्चिन्त हो गये ॥३९॥ और कमार वसुदेव भी शिवादेवीके बगीचोंमें नाट्य-संगीत आदि विनोदोंसे क्रीड़ा करते हुए सदा रहने लगे ॥४०॥
अथानन्तर एक दिन अन्तःपरकी एक कब्जादासी शिवादेवीके लिए विलेपन लिये जा रही थो सो कुमारने उसे तंग कर छीन लिया। इससे रुष्ट होकर कुब्जाने कहा कि कुमार ! ऐसी ही चेष्टाओंसे तुम इस प्रकार बन्धनागारको प्राप्त हो--कैद किये गये हो ॥४१-४२।। कुब्जाकी बात सुनकर शंकायुक्त हो वसुदेवने. उससे पूछा कि कुब्जे ! तूने यह क्या कहा ?-तेरे कहनेका क्या तात्पर्य है ? तब उसने राजाकी जो सलाह थी वह ज्योंकी-त्यों कुमारको बता दी ।।४३।। तदनन्तर 'हमारे प्रति धोखा किया गया' यह जानकर कुमार राजासे विमुख हो गये। वे चतुर तो थे ही इसलिए छलपूर्वक घरसे तथा नगरसे बाहर निकल गये ॥४४॥ वे मन्त्रसिद्धिका बहाना बना एक नौकरको साथ लेकर रात्रिके समय श्मशानमें गये। वहाँ नौकरको एक स्थानपर बैठाकर तथा 'जब मैं पुकारूँ उत्तर देना' ऐसा संकेतकर कुछ दूर अकेले गये। वहाँ एक मुर्दाको अपने आभूषणोंसे अलंकृत कर तथा उसे एक चितापर रखकर उन्होंने कहा कि पिताके समान पूज्य राजा और चुगली करनेवाले नगरवासी सन्तुष्ट होकर चिरकाल तक सुखसे जीवित रहें; मैं अग्निमें प्रविष्ट हो रहा हैं। इस प्रकार जोरसे कहकर तथा 'दौड़कर अग्निमें प्रवेश किया है' यह दिखाकर अन्तर्हित हो दूर चले गये। इस घटनाके बाद वह नौकर भी नगरमें वापस आ गया ॥४५-४८|| नौकर द्वारा वसुदेवका वृत्तान्त कहे जानेपर राजा समुद्रविजय उसी समय नगरवासी, अन्तःपुर, १. न्नाद्य- म.। २. शङ्कासात् म.। ३. वचनं म. । ४. अनुचरोऽपि ।
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