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एकोनविंशः सर्गः
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पिता मे पृष्टवानेवं भगवन् ! दिव्यचक्षुषा । राज्यं पश्यसि मेऽवश्यं स्थाने नाथ ! पुनर्न वा ॥ ८८ ॥ कथितं मुनिना दिव्यचक्षुरुन्मील्य निर्मलम् । श्यामायास्तव कन्यायाः पत्या राज्यपुनर्भवः ॥ ८९ ॥ पुनः पृष्टे कथं नाथ ! ज्ञायत इति स स्फुटम् । तेनोक्तं यो जलावर्त्ते मदेममदमर्दनः ॥९०॥ भविता तव कन्यायाः श्यामायाः पतिरित्यलम् । तदादेशात्सरस्यां च द्वौ द्वौ तत्र नभश्वरौ ॥ पित्रा नित्यं नियुक्तो मे तव स्थानगवेषणे ॥९१॥ लब्धस्त्वमचिरेणैव मन्मनोरथसारथिः । जायते जातुचिन्नाथ ! न हि मिथ्या मुनेर्वचः ॥ ९२ ॥ अङ्गारकेण वृत्तान्तो निश्चितः स्यात्स हि द्विषन् । धूमायमानमूर्त्तिर्नो धूमकेतुरिवोत्थितः ॥९३॥ अविद्याकुशलं वासी महाविद्यात्रलोद्धतः । विद्यावत्या मया मुक्तं कदाचित्स हरेदरिः ॥ ९४ ॥ श्यामाया वचनं श्रुत्वा कोऽत्र दोषस्तथास्त्विति । स्मेरः स्मेरमुखीं गाढं प्रियामुपजुगूह सः ॥९५॥ सविशेषमसौ तत्र विद्याधरजगद्गतम् । हृथं गान्धर्वविज्ञानं शिशिक्षे क्षतमत्सरः ॥ ९६ ॥ निःप्रमादतया याति तयोः काले कदाचन । चिराय सुरतक्रीडाखिन्नयोर्निशि सुप्तयोः ॥९७॥ संगत्याङ्गारकः स्वैरं विश्लिष्या इलेष बन्धनम् । श्यामायाः शयनात् जहे गरुडो वा नृपोरगम् ॥९८॥ दिन मेरे पिता कैलास पर्वतपर गये थे वहाँ पर्वतपर आये हुए एक चारण ऋद्धिधारी मुनिराजके दर्शन कर पिताने उन्हें नमस्कार किया । तदनन्तर मुनिराजको त्रैलोक्यदर्शी जानकर पिताने पूछा कि हे भगवन् ! आप तो अवधिज्ञानरूपी नेत्रसे मेरे राज्यको अवश्य ही देख रहे हैं । हे नाथ ! कृपा कर कहिए मुझे पुनः राज्य प्राप्त होगा या नहीं ? ||८७-८८ || इसके उत्तरमें मुनिराजने अतिशय निर्मल अवधिज्ञानरूपी दिव्य नेत्रको खोलकर कहा कि जो तुम्हारी श्यामा नामकी कन्या है उसके पति द्वारा तुम्हें पुनः राज्यकी प्राप्ति होगी ||८९|| पिताने इसके उत्तर में पुनः पूछा कि हे नाथ ! श्यामा कन्याका पति कौन होगा ? यह स्पष्ट किस तरह जाना जावेगा ? तब मुनिराजने कहा कि जलावर्त नामक सरोवर में जो मदोन्मत्त हाथी के मदका मर्दन करेगा वही तुम्हारी श्यामा कन्याका पति होगा यही उसकी पर्याप्त पहचान है । मुनिराजके आदेशसे उसी समय से पिताने जलावतं नामक सरोवरपर आपकी स्थितिका अन्वेषण करनेके लिए दो विद्याधर नियुक्त कर दिये ||९०-९१ ॥ और उसके फलस्वरूप शीघ्र ही आपकी प्राप्ति हो गयी है । हे नाथ! आप मेरे मनरूपी रथके सारथि हैं— उसे आगे बढ़ानेवाले हैं। यथार्थमें मुनिराजके वचन कभी मिथ्या नहीं होते || १२|| अंगारकको इस वृत्तान्तका निश्चित ही पता चल गया होगा क्योंकि वह हम लोगोंसे सदा द्वेष रखता है और हम लोगोंको नष्ट करनेके लिए सदा धूमिल अग्निके समान उद्यत रहता है ||१३|| वह महाविद्याके बलसे उद्धत है और आप विद्या में कुशल नहीं हैं । यद्यपि में विद्यासे युक्त होनेके कारण आपकी रक्षा करने में समर्थ हूँ तो भी यदि कदाचित् आप मेरे बिना रहेंगे तो वह आपको हर ले जा सकता है । हे नाथ ! इसी भयके कारण मैंने आपसे वर मांगा है कि आप चाहे दिन हो चाहे रात, कभी मेरे बिना न रहें ||९४|| श्यामाके उक्त वचन सुनकर वसुदेवने कहा कि ऐसा ही हो इसमें क्या दोष है । यह कहकर मन्द मन्द हंसते हुए वसुदेवने मुसकराती हुई प्रियाका गाढ़ आलिंगन किया ||९५|| वहाँ रहकर वसुदेवने ईर्ष्या रहित हो विद्याधर लोक सम्बन्धी सुन्दर गन्धर्व विद्याको विशेषता के साथ सीखा ॥ ९६ ॥
तदनन्तर उन दोनोंका समय सदा सावधानी के साथ बीत रहा था । एक दिन रात्रिके समय चिरकाल तक सम्भोग क्रीड़ासे खिन्न होकर दोनों सोये हुए थे ||९७|| कि अंगारकने स्वच्छन्दतासे आकर उनके आलिंगन सम्बन्धी बन्धनको अलग कर दिया और जिस प्रकार गरुड़ साँपको ले उड़ता है उसी प्रकार वह श्यामाकी शय्यासे राजा वसुदेवको ले उड़ा ||९८|| अपने आपको हरा १. वर्त्तनः म । २. तवास्थातां म । ३. इवार्थे वा प्रयोगः ।
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