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एकोनविंशः सर्गः
आपतन्तं स तं हन्तु वञ्चयन्नविदक्षिणः । चिक्रीड दन्तिदन्ताग्रे दोलाप्रेङ्खनमाचरन् ॥६३॥ वशीकृत्य वशी शीतकरशीकरशोभितम् । आरुह्यास्फाल्य हस्तेन हस्तिनं निश्चलं स्थितम् ॥ ६४ ॥ विस्मितः स्वयमेवासौ सशिरःकम्पमुत्करः । अरण्यरुदितं जातमित्यचिन्तयदेककः ||६५ || अभविष्य दिमक्रीडा यदि शौर्यपुरे स्वियम् । अभविष्यत्ततो लोको मुखरः साधुकारतः ||६६|| इति ध्यायन्तमेवैनं जतुर्गजमस्तकात् । सौम्यरूपधरौ धीरौ विद्याधरकुमारकौ ||६७ || नीत्वा तं कुञ्जरावतं नगरं विजयार्द्धजम् । चक्रतुर्व हिरुद्याने सर्वकामिकनामनि ॥ ६८ ॥ अशोकानोकहस्याधः शोकक्लेशविवर्जितम् । वसुदेवं सुखासीनं नवा ताविदमूचतुः || ६९ || स्वामिन्नश निवेगस्य विद्याधरमहेशिनः । शासनात्वमिहानीतो जानीहि श्वशुरः स ते ॥७०॥ अर्माली कुमारोऽहं वायुवेगोऽयमित्यमुम् । निवेद्य पुरमेकोऽगादस्थादेकोऽत्र पालकः ।। ७१ ।। दिष्ट्या वं वर्द्धसे स्वामिन्नानीतो द्विपमर्दनः । घोरः शूरोऽभिरूपश्च विनीतो नवयौवनः ।। ७२ ।। नवेति ज्ञापितस्तेन स प्रमोदवशो नृपः । अङ्गस्पृष्टं ददजातः परिधानावशेषकः ||७३|| ततः समङ्गलं तेन नगरं स प्रवेशितः । अलंकृतवपुः पौरनरनारीभिरीक्षितः ॥७४॥ प्रशस्त तिथिनक्षत्रमुहूर्त्त करणोदये । कन्यामशनिवेगस्य 'श्यामां श्यामामुवाह सः ||७५ || रेमे कामं स कामिन्या कलागुणविदग्धया । तया तदा तदुग्रविद् मुखपङ्कजषट्पदः ।।७६ ||
छलकर अतिशय चतुर वसुदेव उसके दांतोंके अग्रभागपर झूला - सा झूलते हुए क्रीड़ा करने लगे || ६३॥ तदनन्तर जो चन्द्रमा के समान जल के कणोंसे सुशोभित था, ऐसे निश्चल खड़े हुए उस हाथीको वश कर जितेन्द्रिय वसुदेव हाथसे उसका आस्फालन करते हुए उसपर सवार हो गये ||६४॥ उस समय एकाकी वसुदेव स्वयं आश्चर्यं से चकित हो तथा हाथ ऊपरको उठा शिर हिलाते हुए मनमें इस प्रकार विचार करने लगे कि मेरा यह कार्य अरण्यरोदन जैसा हुआ || ६५ || यदि यह हस्तिक्रीड़ा शौर्यपुर में हुई होती तो लोग धन्यवादसे मुखर हो जाते अथवा यह संसार धन्यवादकी ध्वनि गूँज उठता || ६६ || वसुदेव इस प्रकार विचार कर रहे थे कि उसी समय सौम्यरूपके धारक दो धीर-वीर विद्याधरकुमार हाथी के मस्तक से उन्हें हर ले गये || ६७ || और विजयाधं पर्वतके कुंजरावतं नगर में ले जाकर उसके सर्वकामिक नामक बाह्य उपवनमें छोड़ दिया ॥ ६८ ॥ वहाँ जब वसुदेव अशोक वृक्षके नीचे शोक और क्लेशसे रहित सुखसे बैठ गये तब उन दोनों विद्याधर कुमारोंने नमस्कार कर कहा ||६९ || कि हे स्वामिन्! तुम अशनिवेग नामक विद्याधर राजाकी आज्ञासे यहाँ लाये गये हो उसे तुम अपना श्वसुर समझो ॥७०॥ अचिमाली नामका कुमार और यह दूसरा वायुवेग है । इस तरह वसुदेवसे कहकर उनमें से एक तो नगरको ओर चला गया और एक रक्षा करता हुआ वहीं खड़ा रहा ||७१ || 'हे स्वामिन्! आप भाग्यसे बढ़ रहे हैं । हाथीको मर्दन करनेवाला, धीर-वीर, शूरवीर, सुन्दर, विनीत और नवयौवनसे सुशोभित वह कुमार यहाँ लाया जा चुका है' इस प्रकार नमस्कार कर जब उसने राजासे कहा तो राजा आनन्दसेविभोर हो गया । उसने मात्र वस्त्र शेष रखकर शरीरपरके सब आभूषण उसे पुरस्कारमें दे दिये ||७२-७३॥ तदनन्तर जिसका शरीर अलंकृत था और नगरके नर-नारी जिसे बड़ी उत्सुकतासे देख रहे थे ऐसे वसुदेवको राजाने मंगलाचार पूर्वक नगरमें प्रविष्ट कराया || ७४ ॥ वहाँ उत्तम तिथि, नक्षत्र, मुहूर्त और करणका उदय होनेपर वसुदेवने राजा अशनिवेगकी यौवनवती श्यामा नामक कन्याको विवाहा || ७५ || जो कलाओं और गुणोंमें अत्यन्त चतुर थी ऐसी उस कन्या के साथ वसुदेव इच्छानुसार क्रीड़ा करने लगे । अधिक क्या कहें उस समय वसुदेव उसके अतिशय
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१. परिधानं वर्जयित्वा सर्वं ददौ । २. यौवनवतीं ।
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