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एकोनविंशः सर्गः अथाह गणनाथाद्यः शृणु श्रेणिक वर्ण्यते । चेष्टितं वसुदेवस्य वसुधाविजया जम् ॥१॥ समुद्रविजयो भूभृदष्टानां नवयौवने । भ्रातणां राजपुत्रीभिः सत्कल्याणमकारयत् ॥२॥ उवाह तिमक्षोभ्यस्तत; स्तिमितसागरः । स्वयंप्रमा प्रमानूनां सुनीतां हिमवानपि ॥३॥ सिताख्यां विजयः ख्यातां प्रियालापां तथाचलः । उपयेमे युवा धीरो धारणश्च प्रभावतीम् ॥४॥ कालिङ्गी पूरणश्चार्वीमभिचन्द्रश्च सुप्रमाम् । अष्टौ स्वापु महादेव्यस्त्वष्टानामपि ताः स्मृताः ॥५॥ कलागुणविदग्धानां तेषामासीत् सयोषिताम् । अन्योन्यप्रेमबद्ध नामनन्यसदृशी रतिः ॥६॥ तदा देवकुमाराभो वसुदेवः श्रिया श्रितः । शौर्यपुयां च चिक्रीड कुमारक्रीडया युतः ॥७॥ रूपलावण्यसौभाग्यभाग्यवैदग्ध्यवारिधिः । जहार जनचेतांसि कुमारो मारविभ्रमः ॥८॥ चतुणां लोकपालानां वेषमादाय हारिणम् । इन्द्रादिदिक्षु निःक्षुद्रः क्रमात्पुयां विनिर्ययो ।।९।। *निर्याति सूर्यदीप्ताङ्गे चन्द्रसौम्यमुखाम्बुजे । तत्र शौर्य पुरे स्त्रीणां मवत्याकुलता परा ॥१०॥ संघट्टः पुरनारीणां वसुदेवदिवाया। जायतेऽर्णववेलायां पूर्णचन्दोदये यथा ॥११॥ भूमौ रथ्या यथा स्त्रीमिस्त्यक्तप्रस्तुतकर्मभिः । प्रासादेषु गवाक्षाश्च सञ्छाद्यन्ते दिदृक्षमिः ।। १२॥ सौभाग्यहृतचेतस्कं बहिरन्तरितस्ततः । बभूव पुरमुभ्रान्तं वसुदेवकथामयम् ॥१३॥
अथानन्तर गौतम गणधरने कहा कि है श्रेणिक ! अब वसुदेवकी पृथिवी तथा विजयाचं सम्बन्धी चेष्टाओंका वर्णन करता हूँ सो सुन ॥११॥ राजा समुद्रविजयने अपने आठ छोटे भाइयोंके नवयौवन आनेपर उनका राजपुत्रियोंके साथ विवाह करा दिया ॥२॥ अक्षोभ्यने धृतिको, स्तिमितसागरने उत्कृष्ट प्रभाको धारण करनेवाली स्वयंप्रभाको, हिमवानने सुनीताको, विजयने सिताको, अचलने प्रियालापाको, युवा तथा धोर वीर धारणने प्रभावतीको, पूरणने कालिंगीको, और अभिचन्द्रने सुप्रभाको विवाहा। ये आठों स्त्रियाँ अक्षोभ्य आदि कुमारोंकी आठ महादेवियाँ थी तथा अनेकों स्त्रियोंमें प्रधान मानी गयी थीं ॥३-५॥ जो कला तथा अनेक गुणोंमें चतुर थे, अपनी-अपनी स्त्रियोंसे सहित थे और पारस्परिक प्रेमसे आपसमें बँधे हुए थे ऐसे उन सब भाइयोंमें परस्पर बेजोड़ प्रेम था ।।६।। उस समय लक्ष्मीसे सेवित वसुदेव, देव कुमारके समान जान पड़ते थे और बालक्रीड़ासे युक्त हो शौर्यपुरी नगरीमें यथेच्छ क्रीड़ा करते थे ॥७॥ रूप, लावण्य, सौभाग्य, भाग्य और चतुराईसे सागर तथा कामदेवके समान सुन्दर वसुदेव जनताके चित्तको हरण करते थे ॥८॥ अतिशय उदार वसुदेव क्रम-क्रमसे चार लोकपालोंका मनोहर वेष रखकर पूर्व आदि दिशाओंमें निकलते थे ॥९॥ जिनका शरीर सूर्यके समान देदीप्यमान था तथा मुख कमल चन्द्रमाके समान सौम्य था ऐसे वसुदेव जब उस शौर्यपुरमें बाहर निकलते थे तब स्त्रियों में बड़ी आकुलता उत्पन्न हो जाती थी ॥१०|| जिस प्रकार पूर्णचन्द्रका उदय होनेपर समुद्रकी वेलामें संघट्ट मच जाता है उसी प्रकार वसुदेवको देखनेकी इच्छासे नगरकी स्त्रियोंमें संघट्ट मच जाता था-उनकी बड़ी भोर इकट्ठी हो जाती थी ।।११।। उनके बाहर निकलते ही देखनेके लिए इच्छुक स्त्रियाँ अपने प्रारब्ध कार्यों को छोड़कर पृथिवीपर तो गलियोंको रोक लेतो थीं और ऊपर महलोंके झरोखोंको आच्छादित कर लेती थीं ॥१२॥ वसुदेवके सौभाग्यसे जिसका चित्त हरा गया था १. गोतमः । २. विवाहम् । ३. निर्गच्छति सति । ४. सूर्यवत् दीप्तमङ्गं यस्य तस्मिन् । ५. चन्द्रवत् सौम्यं मुखाम्बुजं यस्य तस्मिन् । ६. पूर्णचन्द्रोदयं यथा म.। ७. प्रारब्ध म.।
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