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अष्टादशः सर्गः
२६७ भौमा मसूरसंस्थाना जीवा आप्यास्तृणाम्बुवत् । तैजसाः सूचिसंस्थानाः पताकावच्च वायुजाः ॥७॥ बहुसंस्थानभाजस्तु वनस्पतिमवाङ्गिनः । विज्ञेया हुण्डसंस्थाना विकलेन्द्रियनारकाः ॥७॥ षटसंस्थानभृतो मास्तिर्यञ्चः कथितास्तथा। समेन चतुररण संस्थानेन युताः सुराः ॥७२॥ देहः सूक्ष्मनिगोदस्य भागोऽसंख्येय अङ्गलः । अपर्याप्तस्य जातस्य तृतीयसमयेऽल्पशः ॥७३॥ स एवैकेन्द्रियादोनां देहः स्यादल्पमानतः । पञ्चेन्द्रियावसानानां सूक्ष्मोदारप्रभेदिनाम् ।।७४॥ सहस्रयोजनं पद्मं सगव्यूतं प्रमाणतः । समस्तैकेन्द्रियोत्कृष्टदेहमानमिदं मतम् ॥७५॥ उत्कर्षाद् द्वीन्द्रियेषु स्यात् शङ्को द्वादशयोजनः । त्रीन्द्रियोङ्गी ब्रिगव्यूतो भ्रमरो योजनाङ्गकः ॥७६॥ सहस्रयोजनो मत्स्यः सपर्याप्तः स्वयंभुवः । सिक्थप्रमाणकोऽत्यल्पः प्राणी जलचरः स्मृतः ॥७७॥ संमूच्र्छनजसत्वानां खजलस्थलचारिणाम् । तिरश्चां तु वितस्तिः स्यादपर्याप्तशरीरिणाम् ॥८॥ अपर्याप्ताः पुनः सत्त्वा ये जलस्थलगर्मजाः । संमूच्र्छनोत्थपर्याप्ताः खगा जलचरास्तथा ॥७९॥ धनुःपृथक्त्वमुत्कर्षात् खगाश्चापि च गर्भजाः । पर्याप्ताश्चाप्यपर्याप्ता देहमानं वहन्ति ते ॥८॥
जलगर्भजपर्याप्ताः स्युः पञ्चशतयोजनाः । त्रिपल्यायुतियञ्चस्निगव्यूताः प्रमाणतः ॥८॥ बयालीस हजार वर्ष, छातीसे सरकनेवालोंकी नौ पूर्वांग, मनुष्यों और मत्स्योंको एक करोड़ वर्ष पूर्वको उत्कृष्ट आयु है ॥६४-६९।। पृथिवीकायिक जीव मसूरके आकार हैं, जलकायिक तृणके अग्र भागपर रखी बूंदके समान हैं, तैजस्कायिक जीव खड़ी सूइयोंके सदृश हैं, वायुकायिक जीव पताकाके समान हैं, वनस्पतिकायिक जीव अनेक आकारके धारक हैं। विकलेन्द्रिय तथा नारको जीव
संस्थानसे यक्त हैं ॥७०-७१।। मनष्य और तिर्यंच छहों संस्थानके धारक कहे गये हैं और देव केवल समचतुरस्र संस्थानसे युक्त बतलाये गये हैं ।।७२।। सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीवका शरीर अंगुलके असंख्यातवें भाग है और वह उत्पत्न होनेके तीसरे समयमें जघन्य अवगाहनारूप होता है ।।७३॥ सूक्ष्म और स्थूल भेदोंको धारण करनेवाले एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय जीवों तकका शरीर यदि छोटेसे छोटा होगा तो अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही होगा इससे छोटा नहीं ॥७४।। कमल प्रमाणकी अपेक्षा एक हजार योजन तथा एक कोश विस्तारवाला है। समस्त एकेन्द्रिय जीवोंमें देहका उत्कृष्ट प्रमाण यही माना गया है ।।७५।। दोइन्द्रिय जीवोंमें सबसे बड़ी अवगाहना शंखकी है और वह बारह योजन प्रमाण है। तीन इन्द्रियोंमें सबसे बड़ा कानखजूरा है और वह तीन कोश प्रमाण है। चौइन्द्रियोंमें सबसे बड़ा भ्रमर है और वह एक योजनचार कोश प्रमाण है तथा पंचेन्द्रियों में सबसे बड़ा स्वयम्भरमण समुद्रका राघव मच्छ है और वह एक हजार योजन प्रमाण है। पंचेन्द्रियों में सूक्ष्म अवगाहना सिक्थक मच्छकी है ॥७६-७७।। सम्मूच्र्छनजन्मसे उत्पन्न अपर्याप्तक जलचर, थलचर और नभचर तिर्यंचोंकी जघन्य अवगाहना एक वितस्ति प्रमाण है ॥७८॥ गर्भजोंमें अपर्याप्तक जलचर, स्थलचर, सम्मच्छेनोंमें पर्याप्तक जलचर, नभश्चर तथा गर्भ जोंमें पर्याप्तक, अपर्याप्तक दोनों प्रकारके नभश्चर, तिर्यंच, उत्कृष्ट रूपसे पृथक्त्व धनुष प्रमाण परीरकी अवगाहना धारण करते हैं ॥७९-८०।। गर्भजन्मसे उत्पन्न पर्याप्तक जलचर जोव पांच सायोजन विस्तारवाले हैं। जिन मनुष्य और तिर्यंचोंको आयु तीन पल्यको है उनकी अव१. पृथिवीकायिकाः । २. जलकाथिकाः। ३. अग्निकायिकाः । ४. वायुकायिकाः । मसुरंतुबिन्दु सूई. कलाबधयसण्णिहो हवे देहो। पुढवीआदिच उण्हं तरुतसकाया अणेयविहा ।।१९८।। गो. जी.। ५. सुहुमणिगोदअपज्जत्तयस्स जादस्स तदिय समयम्हि । अंगुल असंखभागं जहण्णमुक्कस्सयं मच्छे ॥९४।। गो. जी. । ६. साहिय सहस्समेकं वारं कोसूणमेकमेक्कं च । जोयणसहस्सदीहं पम्मे वियले महामच्छे ॥९५॥ विति च प पुण्ण जहण्णं अणुंधरी कुंथुकाणमच्छोसु । सिच्छयमच्छे विदंगुलसंखे संखगुणिदकमा ॥९६॥ गो. जी. । ७. जलधरा -म.।
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