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हरिवंशपुराणे
पञ्चचापशतोत्सेधा उत्कर्षान्मारकाः सुराः । पञ्चविंशतिचापाः स्युरायुस्तेषां पुरा यथा ॥२॥ पर्याप्तयः षडाहारशरीरेन्द्रियगोचराः । आनप्राणमनोभाषाभेदेस्ताः परिभाषिताः ॥३॥ स्पर्शनं रसनं घ्राणं चक्षुः श्रोत्रं तथैव तत् । इन्द्रियपञ्चकं प्रोक्तं स्थावरत्रसगोचरम् ॥४॥ लब्धिश्चैवोपयोगश्च भावेन्द्रियमिहोदितम् । द्रव्येन्द्रियं तु निवृत्तिः सहोपकरणमतम् ॥५५॥ स्पर्शनं नैकसंस्थानं रसनं तु क्षुरप्रवत् । घ्राणं चानुकरोस्येवमतिमुक्तकचन्द्रिकाम् ॥८६॥ चक्षुर्मसूरमन्वेति श्रोत्रं तु यवनालिकाम् । स्वाकारेणेति संस्थानं तद्रव्येन्द्रियगोचरम् ॥७॥ धनुःशतानि चत्वारि स्पर्शनेन्द्रियगोचरः । एकेन्द्रियस्य चोस्कृष्टस्ततो यावदसंज्ञिनाम् ॥८॥ अष्टौ षोडश संख्यातो द्वात्रिंशद द्विगुणान्यपि । चतुःषष्टिःशतं दण्डा घ्राणान्ते द्विरसंज्ञिनः ॥८॥ चतुःपञ्चाशता सार्धमेकानत्रिंशदीक्षते । शतानि योजनानां तु चक्षुषा चतुरिन्द्रियः ॥१०॥ योजनानां शतान्यकन्यनं षष्टिः सहाष्टभिः । असंज्ञिचक्षुर्विषयो योजनं श्रोत्रगोचरः ॥६॥ स्पर्श रसं च गन्धं च नवयोजनमात्रगम् । संज्ञी यथास्वमादत्ते शब्दं द्वादशयोजनम् ॥१२॥
सौ योजन विस्तारवाले हैं। जिन मनुष्य और तिर्यश्चोंकी आयु तीन पल्यकी है उनकी अवगाहना तीन कोश प्रमाण है ।।१॥ नारकी उत्कृष्टतासे पाँच सौ धनुष ऊँचे हैं, और देव पच्चीस धनुष प्रमाण है । इनकी आयु पहलेके समान है ॥२॥
आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छास, भाषा और मनके भेदसे पर्याप्तियाँ छह कही गई हैं ॥३॥ स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँच इन्द्रियाँ कही गई हैं। इनमें स्थावर जीवोंके केवल स्पर्शन इन्द्रिय और त्रसजीवोंके यथाक्रमसे सभी इन्द्रियाँ पाई जाती हैं ।।४।। भावेन्द्रिय
और द्रव्येन्द्रियके भेदसे इन्द्रियाँ दो प्रकारकी हैं। इनमें भावेन्द्रियाँ लब्धि और उपयोग रूप हैं तथा द्रव्येन्द्रियाँ निर्वृति और उपकरण रूप मानी गई हैं ॥५॥ स्पर्शन इन्द्रिय अनेक आकारवाली है, रसना खुरपीके समान है, घ्राण अतिमुक्तक-तिल पुष्पका अनुकरण करती है, चक्षु मसूरका अनुसरण करती है और कर्ण इन्द्रिय यवकी नलीके समान है। इस प्रकार द्रव्येन्द्रियों का आकार कहा ।।८६-८७॥ एकेन्द्रिय जीवकी स्पर्शन इन्द्रियका उत्कृष्ट विषय चार सौ धनुष है । उसके आगे असैनी पञ्चेन्द्रिय तक दूना-दूना होता जाता है ॥८॥ इस प्रकार द्वीन्द्रियके स्पर्शनका विषय आठ सौ धनुष, त्रीन्द्रियके सोलह सौ धनुष, चतुरिन्द्रियके बत्तीस सौ धनुष और असैनी पञ्चेन्द्रियके चौंसठ सौ धनुष है। रसना इन्द्रियका विषय द्वीन्द्रिय जीवके चौंसठ धनुष, त्रीन्द्रियके एक सौ अट्ठाईस धनुष, चतुरिन्द्रियके दो सौ छप्पन धनुष, और असैनी पञ्चेन्द्रियके पाँच सौ धनुष है। घ्राण इन्द्रियका विषय त्रीन्द्रिय जीवके सौ धनुष, चतुरिन्द्रियके दो सौ धनुष और असैनी पञ्चेन्द्रियके चार सौ धनुष प्रमाण है ॥८|| चतुरिन्द्रिय जीव अपनी चक्षुरिन्द्रियके द्वारा उनतीस सौ चौवन योजन तक देखता है ।।६०॥ और असैनी पञ्चेन्द्रियके चतुका विषय उनसठ सौ साठ योजन है। एवं असैनी पञ्चेन्द्रियके श्रोत्रका विषय एक योजन है ॥६१।। सैनी पञ्चेन्द्रिय जीव नौ योजन दूर स्थित स्पर्श, रस और गन्धको यथायोग्य ग्रहण कर सकता है
१. ययौ म०। २. आहारसरीरिंद्रियपजत्तीबाणपाणभासमणो। चत्तारि पंच छप्पिय एइंदिय वियल सरणीणं ॥११८|| गो० जी० । ३. लन्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम् त० सू०। ४. निवृत्ति म०। निवृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् त० सू० ।
५. चक्खू सोदं घाणं जिन्भायारं मसूर जवणाली।
अतिमुत्तखुरप्पसमं फासं तु अणेयस ठाणं ।। ६. धणुवीसड दसय कदी जोयण छादारल हीणतिसहस्सा। असहस्स धणु विसया दुगुणा अस रिणत्ति ||१६७॥
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