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अष्टादशः सर्गः
२६९ सहस्रैः सप्तभिः सन्ना चत्वारिंशत्सहस्रकैः । त्रिषष्ट्या च द्विशत्या च योजनैश्चक्षुषेक्षते ॥१३॥ इत्यनेकविकल्पेऽस्मिन् संसारे सारवर्जिते । मोक्षसाधनतः सारं मानुष्यं दुर्लभं च तत् ॥९॥ दुष्कर्मोपशमाल्लब्ध्वा तन्मानुष्यं कथञ्चन । यस्नो भवविरक्तन विधेयो मुक्तये विदा ॥१५॥ अथात्रावसरेऽपृच्छन्नत्वा केवलिनं भवान् । पूर्वानन्धकवृष्णिः स्वानित्युवाच च सर्ववित् ॥१६॥ साकेते रत्नवीर्यस्य राज्ञो राज्ये जिताहिते । तार्थ वृषमनाथस्य वर्तमाने महोदये ॥९॥ श्रेष्टी सुरेन्द्रदत्तोऽभूद्वात्रिंशत्कोटिभिर्धनी । तस्य जैनस्य मित्रं च रुद्रदत्तोऽभवद्विजः ।।५।। तिथिपर्वचतुर्मासी जिनपूजार्थमस्य सः । दत्त्वार्थं द्वादशाब्दान्तं वणिग्यातो वणिज्यया ॥१९॥ स द्यूतवेश्याव्यसनी विनाश्य द्रविणं द्विजः । चौर्यगृहीतमुक्तोऽगादुल्कामुखवनं खलः ॥१०॥ स हि मुष्णन् सह व्याधैर्लोकं ब्याधिनिमो हतः । सेनान्या श्रेणिकेनागान्नरकं रौरवं ततः ॥१०॥ 'देवस्वस्य विनाशेन त्रयस्त्रिंशदुदन्यताम् । समं कालं महादुःखं प्राप्योद्वाभ्रमद् भवे ॥१०२॥ पापस्योपशमात् पश्चादुदमद् गजपुरे पुरे । कापिष्टलायनाभिख्यादनुमत्यामिह द्विजः ॥१०॥
और बारह योजन दूर तकके शब्दको सुन सकता है ।।९२॥ सैनी पंचेन्द्रिय जीव अपने चक्षुके पारा सैंतालीस हजार दो सौ त्रेशठ योजनकी दूरीपर स्थित पदार्थको देख सकता है ॥९॥ इस प्रकार यह असार संसार अनेक विकल्पोंसे भरा हुआ है। इसमें मोक्षका साधक होनेसे मनुष्य पर्याय ही सार है परन्तु वह अत्यन्त दुर्लभ है ।।९४।। दुष्कर्मोंका उपशम होने से यदि किसी तरह मनुष्य पर्याय प्राप्त हुई है तो बुद्धिमान् मनुष्यको संसारसे विरक्त होकर मुक्ति प्राप्तिके लिए प्रयत्न करना चाहिए ।।९५॥
__ अथानन्तर इसी बीचमें केवली भगवान्को नमस्कार कर अन्धकवृष्णिने अपने पूर्वभव पूछे और सर्वज्ञ सुप्रतिष्ठ केवली उसके पूर्वभवोंका वर्णन इस प्रकार करने लगे ॥९६|| जब भगवान् वृषभदेवका महाप्रभावशालो तीर्थ चल रहा था तब अयोध्या नगरीमें राजा रत्नवीर्य राज्य करता था। उसके निष्कण्टक राज्यमें एक सुरेन्द्रदत्त नामका सेठ रहता था जो बत्तीस करोड़ दीनारोंका धनी था, जैनधर्मका परम श्रद्धालु था और रुद्रदत्त ब्राह्मण उसका मित्र था ॥९७-९८।। कदाचित् सुरेन्द्रदत्त सेठ बारह वर्ष तक अष्टमी, चतुर्दशी, आष्टाह्निक पर्व तथा चौमासोंमें जिनपूजाके लिए उपयुक्त धन, रुद्रदत्तको देकर व्यापारके लिए बाहर चला गया ॥९९।। ब्राह्मण रुद्रदत्त बड़ा दुष्ट था। उसने जुआ तथा वेश्या व्यसनमें पड़कर वह धन शीघ्र ही नष्ट कर दिया। जब धन नष्ट हो गया तब चोरी करने लगा। चोरीके अपराधमें पकड़ा गया और जब छूटा तब उल्कामुख नामक वनमें जाकर रहने लगा ॥१००।। वहां वह भीलोंके साथ मिलकर लोगोंको लूटने लगा और अपने दुष्कर्मसे लोगोंके लिए व्याधिस्वरूप हो गया। अन्तमें श्रेणिक नामक सेनापतिके हाथसे मरकर गैरव नामक सातवें नरक गया ||१०|| देवद्रव्यके हडपनेसे वह तैंतीस सागर तक करकके भयंकर दुःख भोगकर वहाँसे निकला और संसारमें भ्रमण करता रहा ॥१०२॥ कदाचित् पाप कमंका उपशम होनेसे वह हस्तिनागपुरमें कापिष्ठलायन नामक ब्राह्मणकी अनुमति नामक स्त्रीसे गौतम नामक ब्राह्मण-पुत्र हुआ। वह महादरिद्र था, उत्पन्न होते ही उसके माता-पिता मर गये
१. सण्णिस्स वार सोदे तिण्हं णव जोयणाणि चक्खुस्स ।
सत्तेताल सहस्सा बेसद तेसटिमदिरेया ।।१६८।। तिण्णिसयसठि विरहिद लक्खं दसमूलताडिदे मूलं ।
णवगुणिदे सठिहिदे चक्खुप्फासस्स अद्धाणं ॥१६९॥ गो. जी.। २. वणिज्यातो म.। ३. देवद्रव्यस्य ।
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