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हरिवंशपुराणे
निःश्रीगौतमनामासौ कृतमातृपितृक्षयः । साधुं भुञ्जानमद्राक्षीद् भिक्षार्थी पर्यटन् वदुः ॥ ३०४ ॥ समुद्रदत्तनामानमनुगम्य तमाश्रमे । जगादात्मसमं यूयं कुरुध्वं मां बुभुक्षितम् ॥१०५॥ भव्य मसौ बुद्ध्वा दीक्षां तस्मै ददौ गुरुः । पापं वर्षसहस्रेण विघ्नकृत् सोऽप्यशीशमत् ॥ १०६॥ स श्रीगौतमसंज्ञाकः प्राप्तोऽक्षीणमहानसम् । पदानुसारिणीं लब्धि बीजबुद्धिरसद्धिमान् ॥ १०७ ॥ आराध्याराधनां सम्यक् सुविशालमगाद् गुरुः । शिष्यो वर्षसहस्राणि पञ्चाशत् स तपोऽतपत् ॥ १०८ ॥ उदियाय स तत्र सुविशाले विशालधीः । स्थिति संमानयन्मान्यामष्टाविंशतिसागरैः ॥१०९॥ अहमिन्द्रसुखं भुक्त्वा सोऽवतीर्य ततो नृपः । संजातोऽन्धकवृष्णिस्त्वमहं तु भवतो गुरुः ॥ ११० ॥ अप्राक्षीत् पूर्वजन्मानि दुःखितः क्षितिपः पुनः । स्वपुत्राणां दशानां च केवली च जगाविति ॥ १११ ॥ सद्भदिलपुरे राजा नाम्नो मेघरथोऽभवत् । मार्या तस्य सुभद्राख्या तयोर्दृढरथः सुतः ॥ ११२ ॥
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यो राजसमस्तस्य भार्या नन्दयशाः सुते । सुदर्शना च सुज्येष्ठा धनदत्तस्य सूनवः ॥ ११३ ॥ धनश्च जिनदेवौ च पालान्तास्ते त्रयो मताः । अहंदासः प्रसिद्धश्च जिनदासस्तथा परः ।। ११४ ॥ अर्हन्त इति ख्यातो जिनदत्तः परः स्मृतः । प्रियमित्रः प्रतीतोऽन्यस्तथा धर्मरुचिध्वनिः ।। ११५ ।। सुमन्दरगुरोः पार्श्व प्रवत्राज नरेश्वरः । धनदत्तोऽपि पुत्रैस्तैर्नवभिः सह दीक्षितः ।। ११६ ॥ सुदर्शनार्थिकापार्श्वे सुभद्रा च सुदर्शना । सुज्येष्ठा च तपो ज्येष्टं सहैव प्रतिपेदिरे ।। ११७ || धनदत्तो गुरुश्चैव वाराणस्यां नृपस्तथा । केवलज्ञानमुत्पाद्य विहृत्य वसुधां क्रमात् ॥ ११८ ॥
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थे तथा भीख मांगता हुआ वह इधर-उधर घूमता-फिरता था। एक बार उसने समुद्रदत्त नामक मुनिराजको आहार करते देखा । आहारके बाद वह उनके पीछे लग गया तथा आश्रम में पहुँचने पर उनसे बोला कि मैं भूखा मरता हूँ आप मुझे अपने समान बना लीजिए || १०३ - १०५ ॥ मुनिराजने उसे भव्य प्राणी जानकर दीक्षा दे दी और उसने भी दीक्षा लेकर एक हजार वर्षकी कठिन तपस्या से विघ्नकारक पापोंका उपशम कर दिया || १०६ || तपस्याके प्रभावसे उक्त गौतम मुनि, बीजबुद्धि तथा रसऋद्धिसे युक्त हो गये और अक्षीणमहानस एवं पदानुसारिणी ऋद्धि भी उन्होंने प्राप्त कर ली ||१०७ || गुरु समुद्रदत्त मुनि, अच्छी तरह आराधनाओंकी आराधना कर छठे ग्रैवेयक के सुविशाल नामक विमानमें अहमिन्द्र हुए और शिष्य गौतम मुनिने पचास हजार वर्ष तप किया ॥१०८॥ अन्तमें विशाल बुद्धिके धारक गौतम मुनि भी अट्ठाईस सागरकी सम्भावनीय आयु प्राप्तकर उसी सुविशाल विमान में उत्पन्न हुए || १०९ || अहमिन्द्रके सुख भोगनेके बाद वहाँसे चलकर गौतमका जीव तो अन्धकवृष्णि हुआ है और तेरा गुरु मुनि समुद्रदत्तका जीव मैं सुप्रतिष्ठ हुआ हूँ ॥११०॥
तदनन्तर दुःखी होते हुए राजा अन्धकवृष्णिने अपने दशों पुत्रोंके पूर्व भव पूछे सो केवली भगवान् इस प्रकार कहने लगे ॥ १११ ॥ उन्होंने कहा कि किसी समय सद्भद्रिलपुर नगर में राजा मेघरथ रहता था, उसकी स्त्रीका नाम सुभद्रा था और उन दोनोंके दृढ़रथ नामका पुत्र था ॥ ११२ ॥ उसी नगर में राजाकी तुलना करनेवाला धनदत्त नामका सेठ रहता था उसकी स्त्रीका नाम नन्दयशा था । नन्दयशासे उसके सुदर्शना और सुज्येष्ठा नामकी दो कन्याएँ तथा धनपाल, जिनपाल, देवपाल, अद्दास, जिनदास, अद्दत्त, जिनदत्त, प्रियमित्र और धर्मरुचि ये नौ पुत्र उत्पन्न हुए ||११३ - ११५ ॥ कदाचित् राजा मेघरथने सुमन्दर गुरुके पास दीक्षा ले ली । यह देख सेठ धनदत्त भी अपने नौ ही पुत्रोंके साथ दीक्षित हो गया ॥ ११६ ॥ । और सुदर्शना नामक आर्थिक के पास सुभद्रा सेठानी तथा उसकी सुदर्शना और सुज्येष्ठा नामक दोनों पुत्रियोंने साथ ही साथ दीक्षा धारण कर ली ||११७|| कदाचित् धनदत्त सेठ, सुमन्दर गुरु और मेघरथ राजा - तीनों ही मुनि १. सुरद्धिमान् म. । २. षष्ठग्रैवेयके विशालनाम्नि विमाने । ३. श्रेष्ठी । ४. सुस्येष्टा म । ५. विहृता म. ।
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