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अष्टावशः सर्गः
गुप्तिश्च विविधा प्रोक्का पञ्चधा समितिस्त्विदम् । सर्वसावद्ययोगस्य प्रत्याख्यानं मतं सतः ॥१४॥ पञ्चधाणुवतं प्रोक्तं त्रिविधं च गुणवतम् । शिक्षावतं चतुर्मेदं धर्मोऽयं गृहिणां स्मृतः ॥४५॥ हिंसादेर्देशतो मुक्तिरणुव्रतमुदीरितम् । दिग्देशानर्थदण्डेभ्यो विरतिश्च गुणवतम् ॥४६॥ सामायिकं त्रिसंध्यं तु प्रोषधातिथिपूजनम् । आयुरन्ते च सल्लेखः शिक्षाव्रतमितीरितम् ॥१७॥ मांसमद्यमधुयूतक्षी रिवृक्षफलोज्झनम् । वेश्यावधूरतित्याग इत्यादिनियमो मतः ॥४८॥ इदमेवेति तरवार्थश्रद्धानं ज्ञानदर्शनम् । शङ्काकाङ्क्षाजुगुप्सान्यमतशंसास्तवोज्झनम् ॥४९॥ तथोपगृहन मार्गभ्रंशिनां स्थितियोजनम् । हेतवो दृष्टिसंशुद्ध वात्सल्यं च प्रभावना ॥५०॥ साभादभ्युदयोपायः पारम्पर्येण मुक्तये । गृहिधर्मोऽत्र मौनस्तु साक्षान्मोक्षाय कल्पते ॥५१।। स धर्मो मानुषे देहे प्राप्यते नान्यजन्मनि । मानुषस्तु भवो दुःखाल्लभ्यते भवसङ्कटे ॥५२॥ स्थावरत्रसकायेषु चतुर्गतिषु देहिनः । कर्मोदयवशात्क्लेशानश्नन्तः पर्यटन्त्यमी ॥५३॥ पृथिव्यप्लेजसा काये मरुतां च वनस्पतेः । स्पर्शनैकेन्द्रियो जीवो दीर्घकालमटाट्यते ॥५४॥ सन्ति चानन्तभेदास्ते जीवाः कर्मकलङ्किताः । ये त्रसस्वमनापन्नाः कुनिगोदनिवासिनः ।।५५।। कुयोन्यशीतिलक्षासु चतुरभ्यधिकास्वमी। अनेककुलकोटोषु बम्भ्रम्यन्ते तनूभृतः ॥५६॥
३ अचौर्य, ४ ब्रह्मचर्य और ५ अपरिग्रह ये पांच महाव्रत, १ मनोगुप्ति, २ वचनगुप्ति और ३ काय- . गुप्ति ये तीन गुप्तियाँ, १ ईर्या, २ भाषा, ३ एषणा, ४ आदान निक्षेपण और ५ प्रतिष्ठापन- ये पांच समितियां और विद्यमान समस्त सावद्य योगका त्याग-यह धर्म बतलाया है ।।४३-४४।। तथा गृहस्थोंके लिए पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाक्त यह बारह प्रकारका धर्म कहा है ॥४५|| हिंसादि पापोंका एक देश छोड़ना अणुव्रत कहा गया है, दिशा देश और अनर्थदण्डोंसे विरत होनेको गुणव्रत कहते हैं और तीनों सन्ध्याओंमें सामायिक करना, प्रोषधोपवास क अतिथिपूजन करना और आयके अन्तमें सल्लेखनाधारण करना इसे शिक्षाव्रत कहते हैं ॥४६-४७॥ मद्य-त्याग, मांस-त्याग, मधु-त्याग, द्यूत-त्याग, क्षीरिफल-त्याग, वेश्या-त्याग तथा अन्यवधू-त्याग आदि नियम कहलाते हैं ॥४८|| 'तत्त्व यही है' इस प्रकार ज्ञान और श्रद्धान होना सो सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन है। शंका, आकांक्षा, जुगुप्सा तथा अन्य मतको प्रशंसा और स्तुतिका छोड़ना, उपगृहन, मार्गसे भ्रष्ट होनेवालोंका स्थितीकरण करना, वात्सल्य और प्रभावना ये सब सम्यग्दर्शनको शुद्ध करनेके हेतु हैं ।।४९-५०॥
गृहस्थ धर्म साक्षात् तो स्वर्गादिक अभ्युदयका कारण है और परम्परासे मोक्षका कारण है परन्तु मुनि धर्म मोक्षका साक्षात् कारण है ॥५१॥ वह मुनिधर्म मनुष्य शरीरमें ही प्राप्त होता है अन्य जन्ममें नहीं और मनुष्य-जन्म संकटपूर्ण संसार में बड़े दुःखसे प्राप्त होता है ॥५२॥ ये प्राणी कर्मोदयके वशीभूत हो स्थावर तथा त्रसकायोंमें अथवा नरकादि चतुर्गतियोंमें क्लेश भोगते हुए भ्रमण करते रहते हैं ॥५३।। मात्र स्पर्शन इन्द्रियको धारण करनेवाला एकेन्द्रिय जीव पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिके शरीरमें दीर्घकाल तक भ्रमण करता रहा है ।।५४॥ कर्मकलंकसे कलंकित ऐसे अनन्त जीव हैं जिन्होंने आज तक सपर्याय नहीं प्राप्त की और आगे भी उसी निगोद पर्यायमें निवास करते रहेंगे ॥५५॥ ये प्राणी चौरासी लाख कुयोनियों तथा अनेक कुलकोटियोंमें निरन्तर भ्रमण करते रहते हैं ॥५६।।
१. मुनेरयं मौनः मुनिसम्बन्धी । २. अत्थि अणन्ता जीवा जेहिं ण पत्तो तसाण परिणामो। भावकलंक-सुपउरा णिगोदवासं ण मंचंति ॥ गो. जी. का.।
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