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अष्टमः सर्गः
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उरुसन्धिनितम्बश्च कुकुन्देरमनोहरः । गुरुर्जघनमारश्च यस्याः सादृश्यमयगात् ॥१४॥ प्रदक्षिणकृतावतं गम्भीरं नाभिमण्डलम् । रोमराजिकृतासङ्गं यस्या नाभेरभून्मुदे ॥१५॥ अरोमशं कृशं मध्यं यस्यास्त्रिवलिभङ्गरम् । बभौ वृत्तसमोत्तुङ्ग धनस्तनमरादिव ॥१६॥ कठिनस्तनचक्राभ्यां यस्या मृदुमियोरसा । प्रक्रीडच्चक्रवाकाभ्यां सरितेव विराधितम् ॥१७॥ रक्तहस्ततलौ श्रेष्ठप्रकोष्ठमणिबन्धनौ । स्वंसौ मृदुभुजौ यस्याः कामपाशौ बभूवतुः ॥१८॥ शङ्खावर्तसमग्रीवा प्रवालाधरपल्लवा । दन्तमुक्ताफलोद्योता सिन्धोवलेव या बभौ ॥१९॥ संरक्ततालजिह्वाग्रमन्तरास्यमराजत । यस्या वाचि प्रवृत्तायां कोकिलस्वननिस्वनम् ॥२०॥ प्रियामुखमिवात्मीयं दिदृक्षोः प्रेयसो मुखम् । संमुखौ भवतो यस्याः कपोलाविव दर्पणौ ॥२१॥ सन्नासिकातिमध्यस्था समा समपुटाभ्यभात् । स्पर्द्धिन्योर्वारयन्तीव दृशोरन्योन्यदर्शनम् ॥२२॥ त्रिवर्णाब्जनिभे यस्या दर्शने दीर्घदर्शने । मन्त्रस्य मन्त्रणायेव कर्णमूलमुपाश्रिते ॥२३॥ तनुरेखभ्रुवौ यस्या न दूरे न च संहते । समारोपितचापाभे शुशुभाते शुभावहे ॥२४॥ न नतस्य न तुङ्गस्य सादृश्यस्य सिसूक्षया । यस्या ललाटपट्टस्य नार्धन्दोरभवत् स्थितिः ॥२५॥
कुण्डलोज्ज्वलगण्डस्य यत्कर्णयुगलस्य तु । नोपमा मासलस्यासीत् कोमलस्य समस्य तु ॥२६॥ सार रहित हैं और हाथीके शुण्डादण्ड कठोर स्पर्शसे युक्त हैं अतः विस्ताररूपी गुणोंसे युक्त होनेपर भी दोनों मरु देवीकी जाँघोंके समान नहीं थे ।।१३।। जिसके कूल्हे, गर्तविशेषसे मनोहर नितम्ब और स्थूल जघन सादृश्यसे परे थे अर्थात् अनुपम थे ॥१४॥ जिसकी आवर्त-जलभंवरके समान गोल, गहरी एवं रोमराजिसे यक्त नाभि, राजा नाभिराजके हर्षका कारण थ जिसकी रोम रहित, पतली एवं त्रिवलिसे युक्त कमर ऐसी जान पड़ती थी मानो गोल, सम, ऊंचे और स्थूल स्तनोंके भारसे ही झुक रही हो॥१६॥ जिस प्रकार मन्द भयके साथ क्रोड़ा करते हुए चकवा-चकवियोंके युगलसे नदी सुशोभित होती है उसी प्रकार जिसका वक्षःस्थल कठोर स्तनोंके मण्डलसे सुशोभित हो रहा था ॥१७॥ जिनकी हथेलियाँ लाल-लाल थीं, जिनकी कोहनी और कलाई उत्तम थीं और जिनके कन्धे शोभास्पद थे ऐसी उसकी दोनों कोमल भुजाएँ कामपाशके समान जान पड़ती थीं ॥१८॥ उसकी ग्रीवा शंखके आवर्तके समान थी, अधर पल्लव मूगाके समान थे और दाँत मोतियोंके समान प्रकाशमान थे इसलिए वह समुद्रकी वेलाके समान सुशोभित हो रही थी ॥१९|| जिसका तालु और जिह्वाका अग्रभाग अत्यन्त लाल था ऐसा उसका अन्तर्मुख सुशोभित था और जब उसके शब्द निकलते थे तब वह कोकिलाके शब्दको भी अशब्द कर देता था-फीका बना देता था ।।२०।। प्रियाके मुखके समान जब नाभिराज अपना मुख देखनेको इच्छा करते थे तब सामने स्थित मरुदेवीके दोनों कपोल दर्पणके समान हो जाते थे॥२१॥ ठीक बीच में स्थित सम और समान पुटवाली उसकी नासिका ऐसी जान पड़ती थी मानो स्पर्धा करनेवाले दोनों नेत्रोंके पारस्परिक दर्शनको रोक ही रही थी॥२२॥ सफेद, काले और लाल इन तीन वर्णके कमलोंके समान जिसके बड़े-बड़े नेत्र किसी मन्त्रको सलाह करने के लिए ही मानो कानोंके समीप तक गये थे ।।२३।। जिसकी पतली भौंहें न दूर थीं और न पास ही थीं। शुभ लक्षणोंसे युक्त थीं तथा चढ़ाये हुए धनुषके समान सुशोभित थीं ॥२४॥ जिसका ललाटपट्ट न अधिक नीचा था और न अधिक ऊँचा था इसलिए उसका सादृश्य प्राप्त करनेके लिए अर्धचन्द्रकी सामर्थ्य नहीं थी ॥२५।। जिसके कानोंका युगल अपने कुण्डलोंसे गालोंको उज्ज्वल बना रहा था, स्थूल था, कोमल था और समान था अत: उसकी कहीं भी उपमा नहीं थी ॥२६॥
१. 'कूपको तु नितम्बस्थौ द्वयहीने कुकुन्दरे' इत्यमरः । २. यस्यां म.। ३. -भिमध्यस्था म. । ४. सादृश्यसिसृक्षया म.। ५. स्रष्टुमिच्छा सिसृक्षा तया । ६. नार्धेन्दु- म. ।
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