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हरिवंशपुराणे
सेव्यमानः सुरैरीशः सिद्धार्थं वनमाप सः । अशोकचम्पकायुग्मच्छदचूत वटैश्चितम् ॥ ९२ ॥ अवतीर्णः स सिद्ध्यर्थी शिविकायाः स्वयं यथा । देवलोकशिरस्थाया दिवः सर्वार्थसिद्धितः ॥ ९३ ॥ ततः प्राह प्रजास्तत्र शोकं त्यजत भोः प्रजाः । संयोगो हि वियोगाय स्वदेहैरपि देहिनाम् || १४ || राजा वो रक्षणे दक्षः स्थापितो भरतो मया । स्वधर्मवृत्तिभिर्नित्यं सेव्यतां सेव्यतां श्रितः ॥९५॥ एवमुक्त्वा प्रजा यत्र प्रजापतिमपूजयन् । प्रदेशः स प्रयागाख्यो यतः पूजार्थयोगतः ।। ९६ ।। आपृच्छय ज्ञातिवगं च राजकं च नतं विभुः । त्यक्त्वाऽन्तर्बहिः संगं संयमं प्रतिपन्नवान् ॥ ९७ ॥ पञ्चमुष्टिभिरुरखातान् विडौजा' मूर्धजान् विभोः । प्रतिगृह्य कृतान् मूर्ध्नि चिक्षेप क्षीरवारिधौ ॥९८॥ जाते निःक्रमणे जैने कृत्वा पूजां सुरासुराः । यथायथं ययुर्नत्वा चिन्ताक्रान्ताश्च मानवाः ।। ९९ । राज क्षत्रोप्रभोजाद्याः स्वामिभक्ती महानृपाः । चतुःसहस्रसंख्याता मुख्या नाग्न्यस्थितिं श्रिताः ॥ १००॥ कायोत्सर्गेण षण्मासान् परीषहसहो जिनः । महातपाश्चतुर्ज्ञानी तस्थौ मौनी गिरिस्थिरः ||१०१ ॥ नृपास्तेऽपि तथा तस्थुः कायोत्सर्गेण निश्चलाः । परमार्थमजानन्तः स्वामिच्छन्दानुवर्तिनः ॥ १०२॥ भृत्यपुत्रकलत्राणि क्षुत्पिपासा कुलात्मनाम् । अद्य श्वो नोऽन्नमादाय समेष्यन्तीत्यमी विदुः ॥ १०३ ॥
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थे और नीचे पृथिवीतलपर भगवान्के द्वारा छोड़े हुए माता-पिता आदिके शोक-रस प्रकट हो रहा था ॥ ९१ ॥ अनेक देवोंसे सेवित भगवान् अशोक, चम्पा, सप्तपर्ण, आम और वट वृक्षोंसे व्याप्त सिद्धार्थ नामक वन में पहुँचे ||१२|| सिद्धि अर्थात् मोक्षकी इच्छा करनेवाले भगवान् वहाँ पालकीसे उस प्रकार उतरे जिस प्रकार कि पहले स्वर्ग लोकके शिखरपर स्थित सर्वार्थसिद्धि विमानसे उतरे थे ||९३|| तदनन्तर भगवान् ने प्रजासे कहा कि हे प्रजाजनो ! तुम लोग शोक छोड़ो क्योंकि प्राणियों का अन्य वस्तुओं की बात जाने दो, अपने शरीर के साथ भी जो संयोग है वह वियोगके ही लिए है । भावार्थ - जब शरीरका भी वियोग हो जाता है तब अन्य वस्तुओंकी तो बात ही क्या है ? ॥ ४॥ अतिशय चतुर भरतको मैंने आप लोगोंकी रक्षा करनेमें नियुक्त किया है । आप लोग निरन्तर अपने धर्म में स्थिर रहते हुए उसकी सेवा करें, वह आपकी सेवाका पात्र है ||१५|| भगवान्के ऐसा कहने के बाद प्रजाने उनकी पूजा की। प्रजाने जिस स्थानपर भगवान् की पूजा की वह स्थान आगे चलकर पूजाके कारण प्रयाग इस नामको प्राप्त हुआ || ९६ || प्रभुने कुटुम्बके लोगों तथा नम्रीभूत राजाओंसे पूछकर अन्तरंग, बहिरंग दोनों प्रकारके परिग्रहका त्यागकर संयम धारण कर लिया ॥९७॥ इन्द्र पंचमुट्ठियोंके द्वारा उखाड़े हुए भगवान् के शिरके बालोंको उठाकर पिटारे में रख लिया और 'इन्हें भगवान्ने शिरपर धारण किया था।' यह विचारकर बड़े आदरसे उन्हें क्षीरसमुद्र में क्षेप दिया || १८ || इस प्रकार दीक्षा कल्याणक होनेपर समस्त सुर और असुर भगवान्की पूजा कर यथायोग्य अपने-अपने स्थानोंपर चले गये । साथ ही चिन्तासे भरे हुए मनुष्य भी नमस्कार कर यथायोग्य अपने-अपने स्थानोंपर गये ||१९|| उस समय इक्ष्वाकु, कुरु, उग्र तथा भोज आदि वंशोंके चार हजार बड़े-बड़े मुख्य स्वामिभक्त राजाओंने भी नग्नदीक्षा धारण की ||१००|| परीषहों को सहनेवाले, महातपस्वी, चार ज्ञानके धारक और पर्वतके समान निश्चल भगवान् छह माहका कायोत्सर्गं लेकर मोनसे विराजमान हुए || १०१ || साथ ही वे अन्य राजा भी जो परमार्थंको नहीं जानते थे मात्र स्वामीकी इच्छानुसार काम करना चाहते थे, निश्चल हो कायोत्सगंसे स्थित हो गये ||१०२ || जब उनकी आत्मा भूख और प्याससे व्याकुल हो उठी तब वे विचार करने लगे कि हमारे नौकर, पुत्र अथवा स्त्रियाँ हमारे लिए भोजन लेकर आज-कलमें
१. सिद्धार्थी म । २. संयोगी म. । ३. सततं श्रियः म । ४. प्रजागारो म । ५. इन्द्रः । ६. स्वामिभक्त महानृपाः म. । ७ नः अस्माकम् ।
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