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सप्तदशः सर्गः
बभूव हरिवंशानां प्रभुर्वइयवसुंधरः । अरिषड्वर्गजिन्मार्गस्त्रिधर्मस्य स सुव्रतः ॥१॥ स दक्षं दक्षनामानं पुत्रं कृत्वा निजे पदे । दीक्षितः स्वपितुस्तीर्थ प्राप मोक्षं तपोबलात् ॥२॥ ऐलेयाख्यमिलायां स दक्षः पुत्रमजीजनत् । मनोहरी च तनयामर्णवोऽपि यथा श्रियम् ॥३॥ ववृधेऽनुकुमारं च कुमारी नेत्रहारिणी। सानुचन्द्रं यथा कान्तिः कलागुणविशेषिणी ॥४॥ यौवनेन कृताश्लेषा कृशमध्यावभासते । स्तनमारेण गुरुणा जघनेन च भारिणा ॥५॥ 'स्वाधीने सति रूपास्त्रे तस्या धीरमनोमिदि। मनोभवोऽत्यजत्स्वेषु कुसुमास्त्रपु गौरवम् ॥६॥ तद्रूपास्त्रविमोक्षेण मनोभूरेकरोद् भृशम् । दक्षस्थापि मनोभेदमन्येषां नु किमुच्यताम् ॥७॥ कन्यया हृतचित्तश्च ततो दक्षः प्रजापतिः । आहूय च्छद्मना सद्म पप्रच्छ प्रणताः प्रजाः ॥८॥ पृष्टा वदत यूयं मे सज्जना जगति स्थितिम् । अविरुद्धं विचार्यह विश्वे विदितवृनयः ॥९॥ यद्वस्तु भुवनेऽनध्य हस्त्यश्ववनितादिकम् । प्रजानुचितमेतस्य राजा विभुरहो न वा ॥१०॥ केचिदूचुर्जनास्तत्र विचार्य चिरमात्मनि । यत्प्रजानुचितं देव ! तत्प्रजापतये हितम् ॥११॥ यथा नदीसहस्राणां सद्रत्नानां च सागरः । आकरोऽनघरत्नानां तथैवात्र प्रजापतिः ॥१२॥
अथानन्तर भगवान् मुनिसुव्रतनाथके पुत्र सुव्रत हरिवंशके स्वामी हुए। उन्होंने समस्त पथिवीको वश कर लिया था. काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद एवं मात्सयं इन छह अन्तरंग शत्रुओंको जीत लिया था, तथा वे धर्म अर्थ काम रूप त्रिवर्गके मार्ग-प्रवर्तक थे ॥१॥ उनके दक्ष नामका अतिशय दक्ष-चतुर पुत्र था। वे उसे अपने पदपर नियुक्त कर अपने ही पिताके समीप दीक्षित हो गये और तपोबलसे मोक्ष चले गये ॥२॥ राजा दक्षने इला नामक रानीमें ऐलेय नामका पुत्र उत्पन्न किया और उसके बाद जिस प्रकार समुद्र ने लक्ष्मीको उत्पन्न किया था उसी प्रकार मनोहरी नामकी पुत्रीको उत्पन्न किया ॥३॥ जिस प्रकार चन्द्रमाके साथ-साथ कलारूपी गुणसे युक्त उसकी कान्ति बढ़ती जाती है उसी प्रकार कुमार ऐलयके साथ-साथ कलारूपो गुणसे युक्त नेत्रोको हरण करनेवाली कुमारी मनोहरी दिनों-दिन बढ़ने लगी ।।४। जब वह यौवनवती हुई तब उसकी कमर पतली हो गयी और वह स्थूल स्तनोंके भार तथा विस्तृत नितम्ब स्थलसे अतिशय सुशोभित होने लगी ।।५।। धीर-वीर मनुष्योंके मनको भेदन करनेवाले उसके सौन्दर्यरूपी अस्त्रके स्वाधीन रहते हुए कामदेवने अपने पुष्पमयी बाणोंका गर्व छोड़ दिया था ॥६।। उसके सौन्दर्यरूपी शस्त्रको छोड़कर कामदेवने राजा दक्षके भी मनको भेद दिया फिर अन्य पुरुषोंकी तो बात ही क्या कही जाये? ॥७॥
तदनन्तर कन्याके द्वारा जिसका चित्त हरा गया था ऐसे दक्ष प्रजापतिने एक दिन किसी छलसे नम्रीभूत प्रजाको अपने घर बलाकर उससे पूछा कि हे सज्जनो! आप सब व्यवहारके ज्ञाता हैं। मैं आप लोगोंसे एक बात पूछता हूँ सो आप सब जगत्की स्थितिका पूर्वापरविरोध रहित विचारकर उत्तर दीजिए ॥८-९॥ बात यह है कि यदि हाथी, घोड़ा, स्त्री आदि कोई वस्तु संसारमें अमूल्य हो और प्रजाके योग्य न हो तो राजा उसका स्वामी हो सकता है या नहीं ? ॥१०॥ प्रजाजनोंमें कितने ही लोगोंने चिरकाल तक आत्मामें विचारकर कहा कि हे देव ! जो वस्तु प्रजाके लिए अयोग्य है वह राजाके लिए हितकारी है ॥११॥ जिस प्रकार समुद्र हजारों १. साधीने म., ग., घ., ड. । २. कामः । ३. हृतचित्तं स. म. ।
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