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सप्तदशः सर्गः
२५९ म्रियमाणोऽतिदुःखेन चक्षुरादिमिरिन्द्रियैः । वियुज्यते स्वयं तेन कोऽन्यस्तेषां वियोजकः ॥१३॥ 'प्राणिघातकृतः स्वर्गः कुतः स्याद्याजकादयः । याज्यस्य स्वर्गगामित्वे दृष्टान्तत्वं गता यतः ॥१४४॥ धर्म्यमेव हि शर्माप्त्य कर्म याज्यस्य जायते । नवपथ्यं शिशोर्द मात्राऽपि स्यात्सुखाप्तये ॥१४५॥ परिषत्प्रावृषि स्फूर्जद्वचोवज्रमुखैरिति । भित्त्वा पर्वतदुःपक्षं स्थिते नारदनीरदे ।। १४६।। साधुकारो मुहुर्दत्तस्तस्मै धर्मपरीक्षकैः । सलौकिकैः शिरःकम्पैस्वाङ्गुलिस्फोटनिस्वनैः ॥ ६४७॥ राजोपरिचरः पृष्ठस्ततः शिष्टेबहुश्रुतैः । राजन् यथाश्रुतं ब्रूहि त्वं सत्यं गुरुभाषितम् ॥ १४८॥ मूढसत्यविमूढेन वसुना दृढबुद्धिना। स्मरतापि गुरोर्वाक्यमिति वाक्यमुदीरितम् ।। १४९ ॥ युक्तियुक्तमुपन्यस्तं नारदेन सभाजनाः । पर्वतेन यत्रोक्तं तदुपाध्यायभाषितम् ।।१५०॥
मन्त्र-तन्त्र तथा अस्त्र आदिसे शरीरका घात होनेपर इसे नियमसे दुःख होता है ।।१४२।। जब यह जीव तीव्र दुःखसे मरने लगता है तब चक्षु आदि इन्द्रियोंसे स्वयं ही वियुक्त हो जाता है इसलिए उनका वियोग करानेवाला और दूसरा कौन है ?। भावार्थ-जब जोव स्वयं ही चक्षु आदि इन्द्रियोंसे वियुक्त होता है तब यह कहना कि 'याजक लोग उनके चक्षु आदिको सूर्य आदिके पास भेज देते हैं' मिथ्या है ॥१४३।। प्राणियोंका घात करनेवालेको स्वर्ग कैसे हो सकता है ? जिससे कि याजक आदिको याज्य ( पशु आदिके ) स्वर्ग जानेमें दृष्टान्त माना जा सके। भावार्थ-पर्वतने कहा था कि मन्त्र द्वारा होम करते ही पशु स्वर्ग भेज दिया जाता है और वहाँ वह याजकादिके समान कल्प काल तक अत्यधिक सुख भोगता रहता है सो प्राणियोंका घात करनेवाले याजक आदिको स्वर्ग कैसे मिल सकता है ? उन्हें तो इस पापके कारण नरक मिलना चाहिए अतः जब याजक आदि स्वर्ग नहीं जाते तब उन्हें पशुके स्वर्ग जानेमें दृष्टान्त कैसे बनाया जा सकता है ? ।।१४४॥
____धर्म सहित कार्य ही पशुको सुख प्राप्तिमें सहायक हो सकता है अधर्म सहित कार्य नहीं क्योंकि बच्चेके लिए माताके द्वारा दिया हुआ अपथ्य पदार्थ सुख प्राप्तिका कारण नहीं होता। भावार्थ-पवंतने कहा था कि जिस प्रकार न चाहनेपर भी बच्चे के लिए घी आदि दिया जाता है तो वह उसकी वद्धिका कारण होता है, उसी प्रकार पशके न चाहनेपर भी उसे यज्ञमें होमा जाता है तो वह उसके लिए स्वर्गप्राप्तिका कारण होता है । पर्वतका यह कहना ठीक नहीं क्योंकि धर्मयुक्त कार्य ही पशुके लिए सुखप्राप्तिमें सहायक हो सकता है अधर्मयुक्त नहीं। जिस प्रकार माताके द्वारा दिये हुए घृत, दुग्ध आदि हितकारी पदार्थ ही बच्चेके लिए सुखप्राप्तिमें सहायक होते हैं विषादिक अपथ्य पदार्थ नहीं उसी प्रकार पशुको जबर्दस्ती होम देने मात्रसे उसे स्वर्गकी प्राप्ति नहीं हो सकती किन्तु उसके धर्मयुक्त कार्यसे ही हो सकती है ।।१४५॥
__इस प्रकार सभारूपी वर्षाकाल में अपने तीक्ष्ण वचन रूपी वज्रके अग्रभागसे पर्वतके मिथ्या पक्षरूपी पवंत-पहाड़के भद्दे किनारेको तोड़कर जब नारदरूपी मेघ चुप हो रहा तब सभा में बैठे हए धर्मके परीक्षक लोगोंने एवं साधारण मनष्योंने शिर हिला-हिलाकर तथा अपनी-अपनी अंगुलियां चटकाकर नारदके लिए बार-बार धन्यवाद दिया ॥१४६-१४७।।
तदनन्तर अनेक शास्त्रोंके ज्ञाता शिष्टजनोंने अन्तरिक्षचारी राजा वसुसे पूछा कि हे राजन् ! आपने गुरुके द्वारा कहा हआ जो सत्य अर्थ सना हो वह कहिए ॥१४८॥ यद्यपि राजा वस दढबुद्धि था और गुरुके वचनोंका उसे अच्छी तरह स्मरण था तथापि मोहवश सत्यके विषय में अविवेकी हो वह निम्न प्रकार वचन कहने लगा ।।१४९|| कि हे सभाजनो! यद्यपि नारदने युक्ति
१. प्राणिघातं करोतीति प्राणिघातकृत् तस्य । २. धर्ममेव म. । ३. शिरःकंपं म.।
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