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सप्तदशः सर्गः
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न चायं संप्रदायोऽस्मायेकस्मै गुरुणोदितः । त्रयः शिष्याः वयं योग्या वसुनारदपर्वताः ॥१२॥ समानश्रुतिकाः शब्दाः सन्ति लोकेऽत्र भूरिशः । गवादयः प्रयोगोऽपि तेषां विषयभेदतः ॥१२१॥ पशुरश्मिमृगाक्षाशावज्रवाजिषु वाग्भुवोः । गोशब्दव्यक्तयो व्यकाः प्रयुज्यन्ते पृथक्-पृथक् ॥१२२॥ न हि चित्रगुरित्यत्रं रश्मिवस्तुनि शेमुषी । न चौशीतगुरित्यत्र सास्नादिमति वर्तते ॥१२३॥ रूड्या क्रियावशावाच्ये वाचां वृत्तिरवस्थिता । तामस्थिरोपदेशास्तु विस्मरन्ति गुरूदितम् ।।१२४॥ तदा चोदनावाक्ये रूढिशब्दार्थदूरगः । क्रियाशब्दस्य चाम्नातो न जायन्त इति ह्यजाः ॥१२५॥ ऐश्चय रूढिशब्दस्य विद्भिर्लोकशास्त्रयोः । अजगन्धोऽयमित्यादौ प्रयोगो न निषिध्यते ॥ १२६॥ तेन पूर्वोक्तदोषोऽपि नैवास्माकं प्रसज्यते । व्यवहारोपयोगित्वाद् वाचां स्वोचितगोचरे ॥१२७॥ सत्यां क्षित्यादिसामग्यामप्ररोहादिपर्ययाः । बीहयोऽजाः पदार्थोऽयं वाक्यार्थो यजनं तु तैः ॥१२८॥ देवपूजा यजेरर्थस्तैरजैर्यजनं द्विजैः। नेवेद्यादिविधानेन यागः स्वर्गफलप्रदः ॥१२९॥
शब्दका अर्थ तो स्वयं जान लेता है पर शब्दको नहीं जान पाता तो यह दुस्तर शाप यहाँ किसके लिए किससे प्राप्त हुआ था सो बताओ। भावार्थ-यदि बुद्धिमान् मनुष्य अपनी इच्छासे शब्दके अर्थकी कल्पना कर लेता है तो उसे शब्द भी बना लेना चाहिए इसमें द्विविधाकी क्या बात है ? ||११९|| गुरुने यह सम्प्रदाय एक पर्वतके लिए ही बनाया हो यह भी सम्भव नहीं है क्योंकि हम वसु, नारद और पर्वत ये तीन योग्य शिष्य थे। भावार्थ -तीन शिष्योंमें-से एक शिष्यको गुरु दूसरा अर्थ बतलावें और शेषको दूसरा अर्थ यह सम्भव नहीं दिखता ||१२०।। लोकमें गोको आदि लेकर ऐसे बहत शब्द हैं जिनका समान श्रवण होता है-समान उच्चारण होता है परन्तु विषय-भेदसे उनका प्रयोग पृथक्-पृथक् होता है। जैसे गो शब्द-पशु, किरण, मृग, इन्द्रिय, दिशा, वच, घोड़ा, वचन और पृथिवी अर्थमें प्रसिद्ध है परन्तु सब अर्थों में उसका पृथक्-पृथक् ही प्रयोग होता है । 'चित्रगु' इस शब्दमें गोका किरण अर्थ कोई नहीं करता और 'अशीतगु' इस शब्दमें गो शब्दका अर्थ सास्नादिमान् पशु कोई नहीं मानता किन्तु प्रकरणके अनुसार 'चित्रगु' शब्दमें गोका अर्थ गाय और 'अशोतगु' शब्दमें किरण ही माना जाता है ॥१२१-१२३।। शब्दोंके अर्थ में जो प्रवृत्ति है वह या तो रूढ़िसे होती है या क्रियाके आधीन होती है परन्तु जिनके हृदय में गुरुका उपदेश चिरकाल तक स्थिर नहीं रहता वे गुरु-प्रतिपादित अर्थको भूल जाते हैं ।।१२४|| इसलिए 'अजैर्यष्टव्यम्' इस वेद-वाक्यमें अज शब्दका अथं रूढ़िगत अर्थसे दूर 'न जायन्ते इति अजाः' ( जो उत्पन्न न हो सकें वे अज हैं) इस व्युत्पत्तिसे क्रिया सम्मत 'तीन वर्षका धान्य' लिया गया है ॥१२५॥ विद्वान् लोग, लोक और शास्त्र दोनोंमें रूढ़ि शब्दके ऐश्वयंको जानते हैं अतः 'अजगन्धोऽयं पुरुषः' इत्यादि स्थलोंमें अज शब्दका बकरा अर्थमें प्रयोग निषिद्ध नहीं है ।।१२६।। पर्वतने जो पहले यह दोष दिया था कि यदि शब्दोंका स्वभावसिद्ध अर्थ न किया जायेगा तो व्यवहारका ही लोप हो जायेगा उसका हमारे ऊपर प्रसंग ही नहीं आता क्योंकि शब्दोंका अपने-अपने योग्य स्थलोंपर व्यवहारकी सिद्धिके लिए ही उपयोग किया जाता है ।। (२७।। इसलिए पृथिवी आदि सामग्रीके रहते हुए भी जिसमें अंकुरादि रूप पर्याय प्रकट न हो सके ऐसा तीन वर्षका पुराना धान अज कहलता है। यह तो अज शब्दका अर्थ है और ऐसे धान्यसे यज्ञ करना चाहिए यह 'अजैर्यष्टव्यम्' इस वाक्यका अर्थ है ।।१२८॥ यज धातुका अर्थ देव-पूजा है इसलिए द्विजोंको पूर्वोक्त धानसे ही पूजा करनी चाहिए क्योंकि नैवेद्य आदिसे को हुई पूजा ही स्वर्ग रूप फलको देनेवाली
१. चित्रा गावो यस्य स चित्रगुः = चित्रवर्णगोयुक्तः । २. अशीता उष्णाः गावः किरणा यस्य सोऽशीतगुः= सूर्यः । ३. क्रियाशब्दसमाम्नातो म. । ४. यज देवपूजा-संगतिकरण-दानेषु । ५. निवेद्यादि-क., ड.।
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