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हरिवंशपुराणे निपातनं च कस्यात्र यत्रात्मा सूक्ष्मतां श्रितः ।' अबध्योऽग्निविषास्त्राद्यैः किं पुनमन्त्रवाहनैः ॥१०९॥ सूर्य चक्षुर्दिशं श्रोत्रं वायुं प्राणानसृपयः । गमयन्ति वपुः पृथ्वीं शमितारोऽस्य याज्ञिकाः ॥१०॥ स्वमन्त्रेणेष्टमात्रेण स्वलोकं गमितः सुखम् । याजकादिवदाकल्पमनल्पं पशुरश्नुते ॥११॥ अभिसंधिकृतो बन्धः स्वर्गाप्त्य सोऽस्य नेत्यपि । न बलाद्याज्यमानस्य शिशोद्विघृतादिभिः ॥११२॥ स्वरक्षमित्युपन्यस्य विरराम स पर्वतः । नारदस्तमपाक मित्युवाच विचक्षणः ॥१॥३॥ शृण्वन्तु मद्वचः सन्तः सावधानधियोऽधुना । पर्वतस्य वचः सर्व शतखण्डं करोम्यहम् ॥११४।। अजैरित्यादिके वाक्ये यन्मृषा पर्वतोऽब्रवीत् । अजाः पशव इत्येवमस्यैषा स्वमनीषिका ॥१५॥ स्वाभिप्रायवशाद् वेदे न शब्दार्थगतिय॑तः । वेदाध्ययनवत्साप्तादुपदेशमुपेक्षते ॥११॥ गुरुपूर्वक्रमादर्था द दृश्यः शब्दार्थनिश्चितः । सान्यथा यदि जायेत जायेताध्ययनं तथा ॥११७॥ अथाध्ययनमन्यत स्यादन्यत्स्यादर्थवेदनम् । स्थिते साधारणे न्याये कामचारगतिः कुतः ॥१८॥ शब्दस्याथ स्वतो वेत्ति प्रज्ञासातिशयोऽपि हि । न शब्दमिति शापोऽयं कुतः कस्यात्र दुस्तरः ॥११९॥
दिखाई देने लगता है सो ठीक ही है क्योंकि मणि, मन्त्र और ओषधियोंका प्रभाव अचिन्त्य होता है ॥१०८। जब कि आत्मा अत्यन्त मुक्ष्मताको प्राप्त है तब यहां घात किसका होता है ? यह आत्मा तो अग्नि, विष तथा अस्त्र आदिके द्वारा भी घात करने योग्य नहीं है फिर मन्त्र पाठोंके द्वारा तो इसका घात होगा ही किस तरह ? ॥१०९॥ याज्ञिक लोग यज्ञमें पशुका घातकर उसके चक्षुको सूर्यके पास, क्षेत्रको दिशाओंके पास, प्राणोंको वायुके पास, खूनको जलके पास और शरीरको पृथिवीके पास भेज देते हैं। इस तरह याज्ञिक उसे शान्ति ही पहुंचाते हैं न कि कष्ट । मन्त्र द्वारा होम करने मात्रसे ही पशु सीधा स्वर्ग भेज दिया जाता है और वहाँ यज्ञ करानेवाले आदिके समान वह कल्पकाल तक बहुत भारी सुख भोगता रहता है ॥११०-१११।। अभिप्रायपूर्वक किया हुआ पुण्यबन्ध ही स्वर्ग प्राप्तिका कारण है और बलपूर्वक होमे गये पशुके वह सम्भव नहीं है इसलिए उसे स्वर्गकी प्राप्ति होना असम्भव है, यह कहना भो ठीक नहीं है क्योंकि जिस प्रकार बच्चेको उसको उसकी इच्छाके विरुद्ध जबर्दस्ती दिये हुए घृतादिकसे उसकी वृद्धि देखी जातो उसी प्रकार यज्ञमें जबर्दस्ती होमे जानेवाले पशुके भी स्वर्गकी प्राप्ति देखी जाती है ॥११२।। इस प्रकार वह पर्वत अपना पूर्व पक्ष स्थापित कर चुप हो रहा तदनन्तर बुद्धिमान् नारद उसका निराकरण करने के लिए इस तरह बोला ॥११३॥
उसने कहा कि हे सज्जनो! सावधान होकर मेरे वचन सुनिए मैं अब पर्वतके सब वचनोंके सौ टुकड़े करता हूँ॥११४॥ 'अजैर्यष्टव्यम्' इत्यादि वाक्यमें पर्वतने जो कहा है वह झूठ है । क्योंकि अजका अर्थ पशु है यह इसकी स्वयंकी कल्पना है ॥११५॥ वेदमें शब्दार्थकी व्यवस्था अपने अभिप्रायसे नहीं होती किन्तु वह वेदाध्ययनके समान आप्तसे उपदेशकी अपेक्षा रखती है ।।११६।। कहनेका तात्पर्य यह है कि गुरुओंकी पूर्व परम्परासे शब्दोंके अर्थका निश्चय करना चाहिए। यदि शब्दार्थका निश्चय अन्यथा होता है तो अध्ययन भी अन्यथा हो जायगा ।।११७|| यदि यह कहा जाये कि अध्ययन दूसरा है और अर्थज्ञान उससे भिन्न हो सकता है तो यह कहना ठीक नहीं क्योंकि उभयत्र न्याय समान होने या एकके विषयमें मनमानी कैसे हो सकतो है ? भावार्थ-यदि अध्ययन गुरु-परम्पराको अपेक्षा रखता है तो अर्थज्ञान भी गुरु-परम्पराको अपेक्षा रखेगा यह न्यायसिद्ध बात है ॥११८।। यदि यह कहा जाये कि प्रज्ञाशाली मनुष्य ---- - ---- - --- ----------- १. नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।। -भगवद्गीता २. दृश्यः शब्दार्थनिश्चितिः घ., म., ङ. । दृष्ट: शब्दार्थ -क. । ३. -मन्यः स्यादन्यः म.।
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