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हरिवंशपुराणे आस्थानीसमये तस्थौ दिनादौ वसुरासने । तमिन्द्रमिव देवौवाः क्षत्रियौघाः सिषेविरे ॥८॥ प्रविष्टौ च नृपास्थानी विप्रौ पर्वतनारदौ । सर्वशास्त्रविशेषज्ञैः प्राश्निकैः परिवारितौ ॥४३॥ ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्या शूद्राः साश्रमिणोऽविशन् । लौकिकाः सहजं प्रष्टुमविशेषादृते सभाम् ॥८४॥ तत्सामानि जगुः केचिजनश्रोत्रसुखान्य लम् । तत्र प्रोच्चारगं मष्टं केचिद् विप्राः प्रचक्रिरे ॥८५॥ यजंषि प्रणवारम्भघोषभाजोपरेऽपठन् । पदक्रमजुषो मन्त्रानामनन्ति स्म केचन ॥८६॥ उदात्तस्यानुदात्तस्य स्वरस्य स्वरितस्य च । ह्रस्वदीर्घप्लुतस्थस्य स्वरूपमुदचीचरन् ॥८७॥ द्विजैः सामग्यजुर्वदमारभ्याध्ययनोदधुरैः । बधिरीकृतदिकचक्रनिचितं सदसोऽजिरम् ॥८॥ सिंहासनस्थमाशामिदंष्टोपरिचरं वसुम् । पोठमर्दैः सहासीनी विप्रो नारदपर्वतौ ॥८९॥ कूर्चप्रारोहिणस्तत्र कमण्डलुबृहत्फलाः । सवल्कलजटामारास्तस्थुस्तापलपादपाः ॥१०॥ सदः सागरसंक्षोमसेतुबन्धेषु केपुचित् । अपक्षपातस बन्धतुलादण्डेषु केषुचित् ॥११॥ उत्पथोत्यानवादोमस्वंकुशेषु च केषुचित् । निकपोत्पलकल्पेषु केषुचित्तत्वमार्गणे ॥१२॥ पण्डितेषु यथास्थानं निविष्टेषु यथासनम् । रूपं ज्ञानवयोवृद्धाः केचिदेवं व्यजिज्ञपन ॥१३॥
राजन् ! वस्तुविसंवादादिमो नारदपर्वतो। विद्वांसावागतौ पाव न्यायमार्गविद तव ॥१४॥ स्वस्तिमतीने चूंकि वसुको गुरुदक्षिणाविषयक सत्यका स्मरण कराया था इसलिए उसने उसके वचन स्वीकृत कर लिये और वह भी कृतकृत्यके समान निश्चिन्त हो घर वापस गयो ॥८१।।
तदनन्तर जब प्रातःकाल के समय सभाका अवसर आया तब राजा वसु सिंहासनपर आरूढ़ हुआ और जिस प्रकार देवोंके समूह इन्द्रकी सेवा करते हैं उसी प्रकार क्षत्रियों के समूह उसकी सेवा करने लगे ॥८२।। उसी समय सर्व शास्त्रोंके विशेषज्ञ प्रश्नकर्ताओंसे घिरे हए पर्वत और नारदने राजसभामें प्रवेश किया ।।८३।। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और आश्रमवासी भी आये तथा अन्य साधारण मनुष्य भी विशेष आमन्त्रण न होने पर भी सहज स्वभाववश प्रश्न करनेके लिए सभामें आ बैठे ॥८४|| उस समय राजसभामें कितने ही ब्राह्मण मनुष्योंके कानोंको सुख देनेवाले सामवेद गा रहे थे और कितने ही वेदोंका स्पष्ट एवं मधुर उच्चारण कर रहे थे ॥८५।। कितने ही ओंकार ध्वनिके साथ यजुर्वेदका पाठ कर रहे थे और कितने ही पद तथा क्रमसे युक्त अनेक मन्त्रोंकी आवृत्ति कर रहे थे ॥८६॥ कितने ही ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत भेदोंको लिये हुए उदात्त, अनुदात्त और स्वरित स्वरोंके स्वरूपका उच्चारण कर रहे थे ॥८७॥ जो ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेदको प्रारम्भ कर जोर-जोरसे पाठ कर रहे थे तथा जिन्होंने दिशाओंके समूहको बहिरा कर दिया था ऐसे ब्राह्मणोंसे सभाका आँगन खचाखच भर गया ।।८८॥ अन्तरीक्ष सिंहासनपर स्थित राजा वसुको आशीर्वाद देकर नारद और पर्वत अपने-अपने सहायकोंके साथ यथायोग्य स्थानोंपर बैठ गये ।।८९।। जो डाँडीरूपी अंकुरोंसे सहित थे तथा कमण्डलुरूपी बड़ेबड़े फल धारण कर रहे थे ऐसे वल्कल और जटाओंके भारसे युक्त अनेक तापसरूपी वृक्ष वहाँ विद्यमान थे ॥२०॥ उस समय जो पण्डित सभामें यथास्थान बैठे थे उनमें कितने ही सभारूपी सागरमें क्षोभ उत्पन्न होनेपर उसे रोकने के लिए सेतुबन्धके समान थे, कितने ही पक्षपात न हो सके इसके लिए तुलादण्डके समान थे, कितने हो कुमार्गमें चलनेवाले वादोरूपी हाथियोंको वश करने के लिए उत्तम अंकूशोके समान थे और कितने ही श्रेष्ठतत्त्वकी खोज करने के लिए कसोटी पत्थरके समान थे। जब सब विद्वान् यथास्थान यथायोग्य आसनोंपर बैठ गये तब जो ज्ञान और अवस्था में वृद्ध थे ऐसे कितने ही लोगोंने राजा वसुसे इस प्रकार निवेदन किया ॥९१-९३।।
हे राजन् ! ये नारद और पर्वत विद्वान् किसो एक वस्तुमें विसंवाद होनेसे आपके पास १. तत्समानि म. । २. सामयजुर्वेद-म. । ३. रूपाः म. ।
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