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सप्तदशः सर्गः
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एकोपाध्यायशिष्याणां नित्यमव्यभिचारिणाम् । गुरुशुश्रूषताऽत्यागे' संप्रदायभिदा कुतः ॥६॥ न स्मरत्यजशब्दस्य यथेहार्थो गुरूदितः । त्रिवर्षा व्रीहयोऽबीजा अजा इति सनातनः ॥६९॥ इत्युक्तोऽपि स दुर्मोचग्राहग्रहगृहीतधीः । सोऽनादृत्य व वस्तस्य प्रतिज्ञामकरोत्पुनः ॥७॥ किमत्र बहुनोक्तेन शृणु नारद ! वस्तुनि । पराजितोऽस्मि यद्यत्र जिह्वाच्छेदं करोम्यहम् ॥७१॥ नारदेन ततोऽवाचि किं दुःखाग्निशिखाती । पतङ्ग इव दुःपक्षः पर्वत ! पतसि स्वयम् ॥७२॥ पर्वतोऽपि ततोऽवोचद् यात' किं बहुजल्पितः । श्वोऽस्तु नौ वसुराजस्य सभायां जल्पनिस्तरः ॥७३॥ नष्टस्त्वं दृष्टं इत्युक्त्वा स्वावासं नारदोऽगमत् । पर्वतोऽपि च तां वातां मातुरातमतिर्जगौ ॥७॥ सा निशम्य हतास्मीति वदन्ती तान्तमानसा । निनिन्द नन्दनं मिथ्या त्वदुक्तमिति वादिनी ॥७५॥ नारदस्य वचः सत्यं परमार्थनिवेदनात् । वचस्तवान्यथा पुत्र ! विपरीतपरिग्रहात् ।।७६॥ समस्तशास्त्रसंदर्भगर्भनिर्भेदशुद्धधीः । पिता ते पुत्र ! यत्प्राह तदेवाख्याति नारदः ॥७७॥ एवमुक्त्वा निशान्ते सा निशान्तमगमद्वसोः । आदरणेक्षिता तेन पृष्टा चागमकारणम् ॥७८॥ निगद्य वसवे सर्व ययाचे गुरुदक्षिणाम् । हस्तन्यासकृतां पूर्व स्मरयित्वा गुरोगृह ॥७९॥ जानताऽपि स्वया पुत्र ! तत्त्वातत्त्वमशेषतः । पर्वतस्य वचः स्थाप्यं दृष्यं नारदभाषितम् ॥८॥ सत्येन श्रावितेनास्था वचनं वसुना ततः । प्रतिपन्नमतः सापि कृतार्थेव ययौ गृहम् ॥८॥
प्राप्त हुआ है ? ॥६७।। जो निरन्तर साथ-ही-साथ रहे हैं तथा जिन्होंने कभी गुरुको शुश्रूषाका त्याग नहीं किया ऐसे एक ही उपाध्यायके शिष्यों में सम्प्रदाय भेद कैसे हो सकता है ? ॥६८।। यहाँ अज शब्दका जैसा अर्थ गुरुजोने बताया था वह क्या तुम्हें स्मरण नहीं है ? गुरुजीने तो कहा था जिसमें अंकुर उत्पन्न होनेको शक्ति नहीं है ऐसा पुराना धान्य अज कहलाता है यही सनातन अर्थ है ॥६९।। दुःखसे छूटने योग्य हठरूपी पिशाचसे जिसकी बुद्धि ग्रस्त थी ऐसे पर्वतने नारदके इस प्रकार कहने पर भी अपना हठ नहीं छोड़ा प्रत्युत नारदके वचनोंका तिरस्कार कर उसने यह प्रतिज्ञा कर ली कि हे नारद ! अधिक कहनेसे क्या? यदि इस विषयमें पराजित हो जाऊँ तो अपनी जीभ कटा लें ॥७०-७१।। पश्चात् नारदने कहा कि हे पर्वत ! खोटा पक्ष लेकर, खोटे पंखोंसे युक्त पक्षीके समान दुःखरूपी अग्निकी ज्वालाओं में स्वयं क्यों पड़ रहे हो? इसके उत्तर में पर्वतने भी कहा कि जाओ बहुत कहनेसे क्या ? कल हम दोनोंका राजा वसुको सभामें शास्त्रार्थ हो जावे ॥७२-७३।। वितण्डावाद बढ़ते देख नारद यह कहकर अपने घर चला गया कि पर्वत ! मैं तुम्हें देखने आया था सो देख लिया. तम भ्रष्ट हो गये। नारदके चले जानेपर पर्वतने भी दुःखी होकर यह वृत्तान्त अपनी मातासे कहा ॥७४।। पर्वतकी बात सुनकर उसकी माताका हृदय बहुत दुःखी हुआ। 'हाय मैं मरी' यह कहती हुई उसने पर्वतको निन्दा को, उसके मुखसे बार-बार यही निकल रहा था कि तेरा कहना झठ है॥७५॥ हे पत्र! परमार्थका प्ररूपक होनेसे नारदका कहना सत्य है और विपरीत अर्थका आश्रय लेनेसे तेरा कहना मिथ्या है ।।७६॥ समस्त शास्त्रोंके पूर्वापर सन्दर्भके ज्ञानसे जिनकी बुद्धि अत्यन्त निर्मल थी ऐसे तेरे पिताने जो कहा था हे पुत्र ! वही नारद कह रहा है ॥७७॥ इस प्रकार पर्वतसे कहकर वह प्रातःकाल होते ही राजा वसुके घर गयो । राजा वसुने उसे बड़े आदरसे देखा और उससे आने का कारण पूछा ।।७८॥ स्वस्तिमतोने वसुके लिए सब वृत्तान्त सुनाकर पहले पढ़ते समय गुरुगृहमें उसके हाथमें धरोहररूपी रखो हुई गुरुदक्षिणाका स्मरण दिलाते हुए याचना की कि हे पुत्र ! यद्यपि तू सब तत्त्व और अतत्त्वको जानता है तथापि तुझे पर्वतके ही वचनका समर्थन करना चाहिए और नारदके वचनको दूषित ठहराना चाहिए ॥७९-८०॥
१. शुश्रूषता त्यागे म. । २. यातः म. । ३. सोऽस्तु म., क., ड. । ४. दुष्ट म. । ५. गृहम् ।
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