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सप्तदशः सर्गः
सम्यग्दृष्टिदिवाकराख्यखचरं लब्ध्वा सखायं पुनः
क्षिप्त्वा पर्वतदुर्भतं कृतितया स्वर्ग गतो नारदः ॥ १६३॥ धर्मः प्राणिदया दयापि सततं हिंसाव्युदासो मनो
वाक्कायविरतिर्वधात्प्रणिहितैः प्राणात्ययेऽप्यात्मनः । धरोऽपौ बुधमादरेण चरितः स्वर्गापवर्गार्गलां
मित्वा मोहमयीं सुखेऽतिविपुले धर्मो जिनव्याहृतः ॥१६॥
इत्यरिटने मपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतो वसपाख्याने नारदपर्वत विवादवर्णनो
नाम सप्तदश सर्गः ॥१२॥
तथा दूसरी ओर सम्यग्दृष्टि दिवाकर नामक विद्याधर मित्रको पाकर एवं पर्वतके मिथ्या मतका खण्डन कर नारद कृत-कृत्य होता हुआ स्वर्ग गया ॥१६३।। जीवोंपर दया करना धर्म है, निरन्तर - हिंसाका त्याग करना दया है और अपने प्राण जानेपर भी उस ओर लगे हुए मन, वचन, कायके द्वारा वधसे दूर रहना हिंसा त्यांग है। जिनेन्द्र भगवान्ने हिंसा त्यागको ही धर्म कहा है । आदर. . पूर्वक आचरण किया हुआ यह धर्म, स्वर्ग और मोक्षको मोहरूपी अर्गलाको भेदकर विद्वज्जनोंको .. अतिशय विस्तृत सुखमें पहुंचा देता है ।।१६४||
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें राजा वसुके चरितमें नारद और पर्वतके विवादका वर्णन करनेवाला सत्रहवाँ सर्ग समाप्त हुआ।॥१७॥
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