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हरिवंशपुराणे षटकर्मणां विधातारं पुराणपुरुषं परम् । त्रातारमिन्द्रमिन्द्रेज्यं वेदे गीतं स्वयंभुवम् ॥१३०॥ देशकं मुक्तिमार्गस्य शोषकं भववारिधेः । अनन्त ज्ञानसौख्यादिमदीशाख्यं महेश्वरम् ॥१३॥ ब्रह्माणं विष्णुमीशानं सिद्धं बुद्ध मनामयम् । आदित्यवर्ण वृषभं पूजयन्ति हितैषिणः ॥१३२॥ ततः स्वर्गसुखं पुंसां ततो मोक्षसुखं ध्वम् । ततः कीर्तिस्ततः कान्तिस्ततो दीप्तिस्ततो तिः ॥१३॥ पिऐनापि न यष्टव्यं पशुत्वेन विकल्पितात् । संकल्पादशुमात्पापं पुण्यं तु शुभतो यतः ॥१३॥ यो नामस्थापनाद्रव्यैर्भावेन च विभेदनात् । चतुर्धा हि पशुः प्रोक्तस्तस्य चिन्त्यं न हिंसनम् ॥१३५॥ यदुक्तंमन्त्रतो मृत्योर्न दुःखमिति तन्मषा । न चेद दुःखं न मत्युः स्यात् स्वस्थावस्थस्य पूर्ववत् ॥१३६॥ पादनासाधिरोधेन विना चेनिपतत्वशः। मन्त्रेण मरणं तथ्यमसंभाव्यमिदं पुनः ॥१३७॥ सुखासिकापि नैकान्तान्मर्तमन्त्रप्रभावतः । दुःखिताप्यारटजन्तोहातस्य निरीक्ष्यते ॥१३८॥ सुसूक्ष्मत्वादवध्योऽयमात्मेति यदुदीरितम् । तन्न स्थूलशरीरस्थः स्थूलोऽपि संभवेद्यतः ॥१३९॥ प्रदीपवदयं देही देहाधारवशाद् यतः । सूक्ष्मस्थूलतया थाति स्वसंहारविसर्पणम् ॥१४॥ अनीदशस्तु संसारी शरीरानन्तवेदकः । सूक्ष्म एष कथंकारं सुखदुःखमवाप्नुयात् ॥१४१॥
अतः शरीरबाधायां मन्त्रतन्त्रास्त्रयोगतः । बाधनं नियमादस्य देहमात्रस्य देहिनः ॥१४२॥ होती है ।।१२९॥ हिताभिलाषी मनुष्य जिन्होंने युगके आदिमें असि, मषि, कृषि, सेवा, शिल्प और वाणिज्य इन छह कर्मोकी प्रवृत्ति चलायी थी, जो पुराण पुरुष हैं, उत्कृष्ट हैं, रक्षक हैं, इन्द्ररूप हैं, इन्द्रके द्वारा पूज्य हैं, वेदमें स्वयम्भू नामसे प्रसिद्ध हैं, मोक्ष मार्गके उपदेशक हैं, संसार-सागरके शोषक हैं, अनन्त ज्ञान-सुख आदि गुणोंसे युक्त ईश नामसे प्रसिद्ध हैं, महेश्वर हैं, ब्रह्मा हैं, विष्णु हैं, ईशान हैं, सिद्ध हैं, बुद्ध हैं, अनामय-रोगरहित हैं और सूर्यके समान वर्णवाले हैं ऐसे भगवान् वृषभदेवकी ही पूजा करते हैं ।।१३०-१३२।। उसी पूजासे पुरुषोंको स्वर्ग सुख प्राप्त होता है, उसीसे मोक्षका अविनाशी सुख मिलता है, उसीसे कोर्ति, उसीसे कान्ति, उसीसे दीप्ति और उसीसे धृतिकी प्राप्ति होती है ।।१३३।। साक्षात् पशुकी बात तो दूर रही पशुरूपसे कल्पित चूनके पिण्डसे भी पूजा नहीं करनी चाहिए क्योंकि अशुभ संकल्पसे पाप होता है और शुभ संकल्पसे पुण्य होता है ।।१३४॥ जो नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव निक्षेपके भेदसे चार प्रकारका पशु कहा गया है उसको हिंसाका कभी मनसे भी विचार नहीं करना चाहिए ॥१३५।। यह जो कहा है कि मन्त्र द्वारा होनेवाली मृत्युसे दुःख नहीं होता है वह मिथ्या है क्योंकि यदि दुःख नहीं होता है तो जिस प्रकार पहले स्वस्थ अवस्था में मृत्यु नहीं हुई थी उसी प्रकार अब भी मृत्यु नहीं होनी चाहिए ॥१३६॥ यदि पैर बांधे बिना और नाक मूंदे बिना अपनेआप पशु मर जावे तब तो मन्त्रसे मरना सत्य कहा जाये परन्तु यह असम्भव बात है ॥१३७।। मन्त्रके प्रभावसे मरनेवाले पशुको सुखासिका प्राप्त होती है यह भी एकान्त नहीं है क्योंकि जो पशु मारा जाता है वह ग्रहसे पीड़ितकी तरह जोरजोरसे चिल्लाता है इसलिए उसका दुःख स्पष्ट दिखाई देता है ।।१३८।। यह जो कहा है कि आत्मा अत्यन्त सूक्ष्म होनेसे अवध्य है-मारने में नहीं आता है वह भी ठीक नहीं है क्योंकि जब आत्मा स्थूल शरीर में स्थित होता है तब स्थूल भी तो होता है ।।१३९॥ यह आत्मा शरीररूपी आधारके अनुसार दीपकके प्रकाशके समान सूक्ष्म और स्थूलरूप होता हुआ संकोच तथा विस्तारको प्राप्त होता रहता है ॥१४०।। यदि अनन्त शरीरोंका अनुभव करनेवाला संसारी जीव इस प्रकार छोटा-बड़ा न माना जावे और एकान्तसे सूक्ष्म ही माना जावे तो वह सुख-दुःखको किस तरह प्राप्तकर सकेगा? ॥१४१॥ इसलिए यह निर्विवाद सिद्ध है कि जोव शरीर प्रमाण है और १. महेशाख्यं म. । २. -वर्णवृषभं म.। ३. तत्स्यादसंभाव्य-म.। ४. प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत् त. सू. अ. ५।
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