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सप्तदशः सर्गः
२५१ वेदाध्ययनसक्तानां मध्येऽमीषामधोगतिम् । गन्तारौ द्वौ नरौ पापाद् द्वौ पुण्यादूर्ध्वगामिनौ ॥४१॥ इत्युक्त्वा मुनिरन्यस्मै साधवेऽवधिलोचनः । करुणावान् गतः क्वापि ज्ञातसंसारसंस्थितिः ॥४॥ श्रुत्वा क्षीरकदम्बोऽपि वचनं शङ्किताशयः । विसृज्य सदनं शिष्यानपराह्वेऽन्यतो गतः ॥४३॥ अपश्यन्ती पति शिष्यान् पप्रच्छ स्वस्तिमत्यसौ । उपाध्यायो गतः पुत्राः ! कुतो ब्रूतेति शङ्किता ॥४४॥ तेऽब्रुवन्नहमेमीति वयं तेन विजिताः । आयात्येवानुमागे नो मातर्मामूस्त्वमुन्मनाः ॥४५॥ इति तेषां वचः श्रुत्वा तस्थौ स्वस्तिमती दिवा । रात्रावपि यदा चाऽसौ गृहं नागतवाँस्तदा ॥४६॥ गता सा शोकिनी बुद्ध्वा भत्तुराकूतमाकुला । ध्रुवं प्रबजितो विप्र इत्यरोदोच्चिरं निशि ॥४७॥ तमन्वेष्टुं प्रभाते तो गतौ पर्वतनारदौ । वनान्तेऽपश्यतां श्रान्तौ दिनैः कतिपयैरपि ॥४८॥ स निषण्णमधीयानं निर्ग्रन्थं गुरुसंनिधौ । पितरं पर्वतो दृष्टा दूरान्निववृतेऽशतिः ॥४९॥ मात्रे निवेद्य वृत्तान्तं तया दुःखितचित्तया । कृत्वा दुःखं विशोकाऽसौ तिष्ठति स्म यथासुखम् ॥५०॥ नारदस्तु विनीतास्मा गुरोः कृरवा प्रदक्षिणम् । प्रणम्याणुवती भूत्वा संभाष्य गृहमागतः ॥५१॥ 'आश्वास्य शोकसंतप्ता नवा पर्वतमातरम् । जगाम निजधामासौ नारदोऽतिविशारदः ॥५२॥ वसोरपि पिता राज्यं वसौ विन्यस्य विस्तृतम् । संसारसुखनिर्विण्णः प्रविवेश तपोवनम् ॥२३॥
आकाशमें किन्हीं चारण ऋद्धिधारी मुनिके निम्नांकित वचन सुने ।।४०॥ वे कह रहे थे कि वेदाध्ययनमें लगे हुए इन चार मनुष्यों के बीच में पापके कारण दो तो अधोगतिको जावेंगे और दो पुण्यके कारण ऊर्ध्वगति प्राप्त करेंगे ॥४१॥ जो अवधिज्ञानरूपी नेत्रके धारक थे, दयालु थे और संसारको सब स्थिति जानते थे ऐसे वे मुनिराज साथके दूसरे मुनिसे इस प्रकार कहकर कहीं चले गये ।।४२॥ इधर मुनिराजके उक्त वचन सुनकर क्षीरकदम्बकका हृदय शंकित हो उठा। जब दिन ढल गया तो उसने शिष्योंको तो घर भेज दिया पर स्वयं अन्यत्र चला गया ।।४३॥ पतिको शिष्योंके साथ न देख स्वस्तिमतिने शंकित हो पूछा कि अरे शिष्यो! उपाध्याय कहाँ गये हैं ? बताओ ।।४४|| शिष्योंने कहा कि उन्होंने हम लोगोंको यह कहकर भेजा था कि मैं अभी आता हूँ। हे मां! वे मार्गमें पीछे आते ही होंगे, व्यग्र न होओ ॥४५।। शिष्योंके उक्त वचन सुन स्वस्तिमतो दिन-भर तो चुप बैठी रही परन्तु जब वह रात्रिको भी घर नहीं आया तो उसके शोककी सीमा नहीं रही। वह पतिका अभिप्राय जानती थी इसलिए जान पडता है ब्राह्मणने दोक्षा ले ली है, यह विचारकर वह चिरकाल तक रोती रही ।।४६-४७॥ प्रातःकाल होनेपर पर्वत और नारद उसे खोजनेके लिए गये। वे कितने ही दिन भटकते रहने से थक गये। अन्तमें उन्होंने देखा कि पिता क्षीरकदम्बक वनके अन्तमें गुरुके पास निर्ग्रन्थ मुद्रा में बैठकर पढ़ रहे हैं। पिताको उस प्रकार बैठा देखकर पर्वतका धैर्य छूट गया। उसने दूरसे ही लौटकर माताके लिए सब समाचार सुनाया। पर्वतके मुखसे पतिकी दीक्षाका समाचार जानकर ब्राह्मणी स्वस्तिमती बहुत दुःखी हुई। पर्वतने भी माताके साथ दुःख मनाया। अन्तमें धीरे-धीरे शोक दूर कर दोनों पहलेके समान सुखसे रहने लगे ।।४८-५०॥
पर्वत तो दूरसे चला आया था परन्तु नारद विनयी था इसलिए उसने गुरुके पास जाकर प्रदक्षिणा दी, नमस्कार किया, उनसे वार्तालाप कर अणुव्रत धारण किये और उसके बाद वह घर वापस आया ॥५१।। अतिशय निपुण नारदने आकर शोकसे सन्तप्त पर्वतकी माताको आश्वासन दिया, नमस्कार किया और उसके बाद अपने घरकी ओर प्रस्थान किया ।।५२।। तदनन्तर वसुके पिता राजा अभि चन्द्र भी संसारके सुखसे उदासीन हो गये इसलिए अपना विस्तृत राज्य वसुके
१.आशास्य म. ।
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