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हरिवंशपुराणे
जगत्प्रभावसंभारौ तावखण्डितमण्डलौ । सूर्याचन्द्रमसौ नित्यं विजिगीषू प्रतिग्यतुः ॥२६॥ ताभ्यामिन्द्रपुरं चक्रे रेवायाः सरितस्तटे । जयन्तीवनवास्यौ द्वे चरमेण पुरौ कृते ॥२७॥ संजयश्चरमस्यासीत् तनयो नयवित्तथा । पौलोमस्य महीदत्तस्तपस्थौ जनकौ च तौ ॥ २८ ॥ महीदत्तेन नगरं कृतं कल्पपुराख्यया । सोऽरिष्टनेमिमत्स्याख्यौ तनयावुदपादयत् ॥ २९ ॥ मत्स्यो भद्रपुरं जित्वा सेनया चतुरङ्गया । तथा हास्तिनपुरं प्रीतस्सोऽध्यतिष्ठत् प्रतापवान् ॥ ३० ॥ तस्य पुत्राः शतं 'जाताः शतमन्युसमाः क्रमात् । अयोधनादयो ज्येष्ठे राज्यं न्यस्य स दीक्षितः ॥३१॥ अयोधनसुतो मूलः शालस्तस्य सुतोऽभवत् । सूर्यस्तस्याभवत् सूनुस्तेन शुभ्रपुरं कृतम् ॥३२॥ तस्यासीत्त्वमरस्तेन वज्राख्यं पुरमाहितम् । देवदत्तस्ततो जातो देवेन्द्रसमविक्रमः ॥३३॥ मिथिलानाथमुत्पाद्य विदेहानामभूद्विभुः । हरिषेणस्ततो जज्ञे नमसेनस्तु तत्सुतः ॥ ३४ ॥ ततः शङ्ख इति ख्यातस्ततो भद्र इतीरितः । अभिचन्द्र स्ततश्चाभूदभिभूतरिपुद्युतिः ॥३५॥ विन्ध्यपृष्टेऽभिचन्द्रेण चेदिराष्ट्रमधिष्ठितम् । शुक्तिमत्यास्तटेऽधायि नाम्ना शुक्तिमती पुरी ॥ ३६ ॥ उग्रवंशप्रसूतायां वसुमत्यामभूद्वसुः । अभिचन्द्राद् यथार्द्धात्मा चन्द्रकान्तमहामणिः ॥३७॥ नाम्ना क्षीरकदम्बोऽभूत्तत्र वेदार्थविद्विजः । तस्य स्वस्तिमती पत्नी पर्वतस्तनयस्तयोः ॥ ३८॥ अध्यापितास्त्रयस्तेन वसुपर्वतनारदाः । सरहस्यानि शास्त्राणि गुरुणा धिषणावता ॥ ३९ ॥ आरण्यकमसौ वेदमरण्येऽध्यापयन् सुतान् । आकर्णयद् गिरं व्योम्नि मुनेराकाशगामिनः ॥४०॥ चरम नामक पुत्रोंके लिए राज्यलक्ष्मी सौंपकर तपके लिए चला गया || २५ || पौलोम और चरमका प्रभाव समस्त जगत् में फैल रहा था तथा वे दोनों अखण्डित मण्डल - अखण्ड राष्ट्रके धारक थे इसलिए विजयको अभिलाषा रखते हुए वे दोनों निरन्तर सूर्य और चन्द्रमाको जीतते थे । सूर्य और चन्द्रमाका प्रभाव भी समस्त जगत् में फैला रहता है और वे अखण्ड मण्डल --- अखण्ड बिम्बके धारक होते हैं ||२६|| उन दोनोंने मिलकर रेवा नदीके तटपर इन्द्रपुर नामका नगर बसाया और चरमने जयन्ती तथा वनवास्य नामकी दो नगरियाँ बसायीं ||२७|| पौलोमके महीदत्त और चरमके संजय नामका नीतिवेत्ता पुत्र था । अन्तमें पौलोम और चरम दोनों ही तप करने लगे ||२८|| महोदत्तने कल्पपुर नामका नगर बसाया और अरिष्टनेमि तथा मत्स्य नामक दो पुत्र उत्पन्न किये ||२९|| प्रतापी मत्स्य अपनी चतुरंग सेनासे भद्रपुर और हास्तिनपुरको जीतकर बड़ी प्रसन्नतासे हस्तिनापुर में रहने लगा ||३०|| उसके क्रम क्रमसे अयोधनको आदि लेकर इन्द्र के समान पराक्रमके धारक सौ पुत्र उत्पन्न हुए । अन्त में वह ज्येष्ठ पुत्रके लिए राज्य सौंपकर दीक्षित हो गया ||३१|| राजा अयोधनके मूल, मूलके शाल और शाल के सूर्य नामका पुत्र हुआ। सूर्यने शुभ्रपुर नामका नगर बसाया था ||३२|| सूर्यके अमर नामका पुत्र हुआ और उसने वज्र नामका नगर बसाया । अमरके देवेन्द्रके समान पराक्रमी देवदत्त नामका पुत्र हुआ ||३३|| देवदत्त मिथिलानाथके हरिषेण, हरिषेणके नभसेन, नभसेनके शंख, शंखके भद्र और भद्रके शत्रुओंकी कान्तिको तिरस्कृत करनेवाला अभिचन्द्र नामका पुत्र हुआ || ३४ - ३५ || अभिचन्द्रने विन्ध्याचल के ऊपर चेदिराष्ट्र की स्थापना की तथा शुक्तिमती नदी के किनारे शुक्तिमती नामकी नगरी बसायी || ३६ || अभिचन्द्रकी उग्रवंश में उत्पन्न वसुमती नामकी रानीसे वसु नामका पुत्र हुआ। वह वसु चन्द्रकान्त महामणिके समान आर्द्रहृदय था ।। ३७। उसी नगरीमें वेदार्थका बेला एक क्षीरकदम्ब नामका ब्राह्मण रहता था । उसकी खीका नाम स्वस्तिमतो था और उन दोनोंके पर्वत नामका पुत्र था ||३८|| बुद्धिमान् गुरु क्षीरकदम्बने वसु पर्वत और नारद इन तीन शिष्यों को गूढार्थं सहित समस्त शास्त्र पढ़ाये ||३९|| एक बार क्षीरकदम्बक वनमें उक्त तीनों पुत्रोंको आरण्यक वेद पढ़ा रहा था कि उसने
१. याताः म. ।
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