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दशमः सर्गः
धर्म प्रवदता तेन तदा त्रैलोक्यसंनिधौ । तं वर्षसहस्त्रान्तं मौनमुद्योदितं दृढम् ॥१॥ संसारतरणं तीर्थ नाथे दर्शयति स्वयम् । ददर्श जगदत्यर्थ गम्भीरार्थमपि स्फुटम् ॥२॥ वागाद्यतिशयोद्योंते द्योतयत्यर्थसंपदम् । जिनेन्द्रद्युमणौ को वा मिथ्यान्धतमसं भजेत् ॥३॥ जिनेन्द्रोऽथ जगौ धर्मः कार्यः सर्वसुखाकरः । प्राणिभिः सर्वयत्नेन स्थितः प्राणिदयादिषु ॥४॥ सुखं देवनिकायेपु मानुषेषु च यत्सुखम् । इन्द्रियार्थसमुद्भूतं तत्सर्व धर्मसंभवम् ॥५॥ कर्मक्षयसमुद्भतमपवर्गसुखं च यत् । आत्माधीनमनन्तं तद् धर्मादेवोपजायते ॥६॥ दया सत्यमथास्तेयं ब्रह्मचर्यममूर्च्छता । सूक्ष्मतो यतिधर्मः स्यात्स्थूलतो गृहमेधिनाम् ॥७॥ दान पूजातपशील लक्षणश्च चतुर्विधः । त्यागजश्चैव शारीरो धर्मो गृहनिषेविणाम् ।।८॥ सम्यग्दर्शनमूलोऽयं महद्धिकसुरश्रियम् । ददाति यतिधर्मस्तु पुष्टो मोक्षसुखप्रदः ॥९॥ स्वर्गापवर्गमूलस्य सद्धर्मस्येह लक्षणम् । श्रृतज्ञानाद्विनिश्चेयमर्वाग्दर्शिमिरर्थिभिः ॥१०॥ द्वादशाङ्गं श्रुतज्ञानं द्रव्यभावभिदां श्रितम् । आप्तामिव्यङ्गयमातश्च निर्दोषावरणो मतः ॥११॥
उस समय त्रिलोकवर्ती जीवोंके सन्निधानमें धर्मका उपदेश देते हुए भगवान्ने एक हजार वर्ष तक दृढ़तापूर्वक धारण किया हुआ मौन खोला ॥१॥ श्री आदि जिनेन्द्र स्वयं ही संसारसागरमें पार करनेवाला तीर्थ दिखला रहे थे, इसलिए संसारके समस्त जीव अतिशय गूढ़ अर्थको भी सरलतासे देख रहे थे। भावार्थ-यद्यपि दिव्यध्वनिमें प्रतिपादित पदार्थ अत्यन्त गम्भीर था फिर भी वक्ताके प्रभावसे लोग उसे सरलतासे समझ रहे थे ॥२॥ उस समय जब कि वचन आदिके अतिशयोंसे प्रकाशमान जिनेन्द्ररूपी सूर्य स्वयं पदार्थों को प्रकाशित कर रहे थे तब कौन मनुष्य मिथ्यात्वरूपी अन्धकारको प्राप्त हो सकता था ? अर्थात् कोई नहीं ॥३॥
अथानन्तर जिनेन्द्र भगवान्ने कहा कि समस्त प्राणियोंको जीव-दया आदि कार्यों में स्थित धर्म पूर्ण प्रयत्नसे करना चाहिए क्योंकि धर्म ही समस्त सुखोंकी खान है ॥४॥ चार निकायके देवों और मनुष्योंमें इन्द्रिय विषयजन्य जो सुख दिखाई देता है वह सब धर्मसे ही उत्पन्न हुआ है ॥५।। और कर्मोंके रूपसे उत्पन्न, स्वाधीन तथा अन्तसे रहित जो मोक्षसम्बन्धी सुख है वह भी धर्मसे ही उत्पन्न होता है ।।६।। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये सूक्ष्म रीतिसे धारण किये जावें तो मुनिका धर्म है और स्थूल रीतिसे धारण किये जावें तो गृहस्थका धर्म है ॥७॥ दान, पूजा, तप और शील यह गृहस्थका चार प्रकारका शारीरिक धर्म है- शरीरसे करने योग्य है। गृहस्थका यह चतुर्विध धर्म त्यागसे ही उत्पन्न होता है ।।८॥ सम्यग्दर्शन जिसकी जड़ है ऐसा यह गृहस्थका धर्म महद्धिक देवोंकी लक्ष्मी प्रदान करता है और पूर्णतासे पालन किया हुआ मुनिधर्म मोक्ष सुखको देनेवाला है ॥९॥ जो मात्र अर्वाचीन बातको ही देख सकते हैं ऐसे हिताभिलाषी मनुष्योंको ( छद्मस्थ जीवोंको) स्वर्ग और मोक्षके मूलभूत समीचीन धर्मका लक्षण श्रुतज्ञानके द्वारा जानना चाहिए। भावार्थ-अल्पज्ञानी मनुष्य द्वादशांगके सहारे ही धर्मका लक्षण समझ सकते हैं, इसलिए यहाँ द्वादशांगका वर्णन करना उचित है ॥१०॥ द्रव्यश्रुत और भावश्रुतके भेदको प्राप्त हुआ द्वादशांग श्रुतज्ञान आप्तके द्वारा प्रकट होता है और आप्त वही माना गया है
१. संपदा म.,ख., ङ. । २. सूतं म. । ३. निर्दोषाचरणो म.।
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