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एकादशः सर्गः
पट्टचीणमहानेत्रदुकूलवर कम्बलैः । वस्त्रैर्विचित्रवर्णाढ्यैः पूर्णपद्मनिधिः सदा ॥१२१॥ कटकैः कटिसूत्राद्यैः स्त्रीपुंसाभरणैः शुभैः । स पिङ्गलनिधिः पूर्णो गजवाजिविभूषणैः ॥१२२॥ "कामवृष्टिवशास्तेऽमी नवापि निधयः सदा । निष्पादयन्ति निःशेषं चक्रवर्त्तिमनीषितम् ॥ १२३॥ शतानि त्रीणि षष्ट्या तु सूपकाराः परे परे । कल्याणसिक्थमाहारं प्रत्यहं ये वितन्वते ॥ १२४॥ सहस्रसिक्थः कबलो द्वात्रिंशत् तेऽपि चक्रिणः । एकश्चासौ सुभद्रायाः एकोऽन्येषां तु तृप्तये ॥ १२५ ॥ चित्रकारसहस्राणि नवतिर्नवभिः सह । द्वात्रिंशत् ते सहस्राणि नृपा मुकुटबन्दकाः ॥ १२६॥ देशाश्चापि हि तावन्तो जयन्त्यपि सुरखियः । अन्तःपुरसहस्राणि तस्य षण्णवतिः प्रभोः ॥१२७॥ हलकोटी तथा गावनिकोव्यः कामधेनवः । कोट्यश्चाष्टादशाश्वानां निश्चेया वातरंहसाम् ॥ १.२८ ॥ लक्षाश्चतुरशीतिस्तु मदमन्थरगामिनाम् । हस्तिनां सुरथानां च प्रत्येकं चक्रवर्त्तिनः ॥ १२९ ॥ 'आदित्ययशसा सार्द्धं विवर्द्धनपुरोगमाः । पञ्च पुत्रशतान्यस्य वशाश्वरमदेहकाः ॥१३०॥ भाजनं भोजनं शय्या चमूर्वाहनमासनम् । 'निधिरत्नपुरं नाट्यं मोगास्तस्य दशाङ्गकाः ॥ १३१ ॥ स पोडशसहस्रैश्च गणबद्धसुरैः सदा । सेवायां सेव्यते दक्षैः प्रमादरहितैर्हितैः ॥ १३२ ॥ विभवेन नरेन्द्र तादृशेन युतोऽपि सन् । शास्त्रार्यक्षुण्णधीश्चक्रे दुर्गतिग्रहनिग्रहम् ॥ १३३ ॥ स द्वात्रिंशत्सहस्राणां स्मयबाहुल्यमस्मयः । अपाकरोद्विकीर्यैतान् दोः कृताहितमन्थनः ॥ १३४॥ "श्रीवृक्ष लक्षितोरस्के सचतुःषष्टिलक्षणे । षोडशे मनुराजेऽस्मिन् विडौजः श्रीविडम्बिनि ॥१३५॥
स्वायंभुवे महाभागे भरते भरतक्षितिम् । नीत्या शासति खण्डानां नित्याखण्डितपौरुषे ॥ १३६॥
पूर्ण थी || १२० || आठवीं पद्मनिधि पाटाम्बर, चीन, महानेत्र, दुकूल, उत्तम कम्बल तथा नाना प्रकार के रंग-बिरंग वस्त्रोंसे परिपूर्ण थी || १२१|| और नौवीं पिंगलनिधि कड़े तथा कटिसूत्र आदि स्त्री-पुरुषोंके आभूषण और हाथी, घोड़ा आदिके अलंकारोंसे परिपूर्ण थी ॥ १२२ ॥ | ये नौकी नौ निधियाँ कामवृष्टि नामक गृहपतिके आधीन थीं और सदा चक्रवर्ती के समस्त मनोरथों को पूर्ण करती थीं ॥ १२३ ॥ चक्रवर्तीके एक-से-एक बढ़कर तीन सौ साठ रसोइया थे जो प्रतिदिन कल्याणकारी सीथोंसे युक्त आहार बनाते थे || १२४ || एक हजार चावलोंका एक कंबल होता है ऐसे बत्तीस कबल प्रमाण चक्रवर्तीका आहार था, सुभद्रा का आहार एक कबल था और एक कबल अन्य समस्त लोगों को तृप्तिके लिए पर्याप्त था और एक कबल अन्य समस्त लोगोंकी तृप्तिके लिए पर्याप्त था ॥ १२५ ॥ चक्रवर्ती के निन्यानबे हजार चित्रकार थे, बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा थे, उतने ही देश थे और देवांगनाओंको भी जीतनेवाली छियानबे हजार स्त्रियाँ थीं ।। १२६-१२७|| एक करोड़ हल थे, तीन करोड़ कामधेनु गायें थीं, वायुके समान वेगशाली अठारह करोड़ घोड़े थे, मत्त एवं धीरे-धीरे गमन करनेवाले चौरासी लाख हाथी और उतने ही उत्तम रथ थे ।। १२८-१२९ ॥ अकंकीति और विवर्धनको आदि लेकर पाँचसो चरम शरीरी तथा आज्ञाकारी पुत्र थे || १३०|| १ भाजन, २ भोजन, ३ शय्या, ४ सेना, ५ वाहन, ६ आसन, ७ निधि, ८ रत्न, ९ नगर और १० नाट्य ये दश प्रकारके भोग थे || १३१|| सेवामें निपुण, प्रमादरहित एवं परमहितकारी सोलह हजार गणबद्ध देव सदा उनकी सेवा करते थे || १३२ || यद्यपि राजाधिराज चक्रवर्ती इस प्रकारके विभवसे सहित
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तथापि उनकी बुद्धि शास्त्रोंका अर्थ विचारने में निरत रहती थी और वे दुर्गतिरूपी ग्रहका सदा निग्रह करते रहते थे ।। १३३ || भुजाओंसे शत्रुओं का मथन करनेवाले चक्रवर्तीने यद्यपि बत्तीस हजार राजाओंको बिखेरकर उनका अभिमान नष्ट कर दिया था तथापि स्वयं अभिमानसे रहित थे || १३४|| जिनका वक्षःस्थल श्रीवृक्ष के चिह्न से सहित था, जो चौंसठ लक्षणोंसे युक्त थे, जो इन्द्रकी
१. कामदृष्टि म । २. अर्ककीर्तिना । ३. विवर्द्धनकुमारादयः । ४. निधिरत्नं पुरं म । ५. श्रीवक्ष-म. ।
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