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हरिवंशपुराणे
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संघः परिषदि श्रीमान् बभौ सप्तविधस्तदा । विचित्रगुणपूर्णानामृषीणां वृषभेशिनः ॥ ७१ ॥ सहस्राणि च चत्वारि तत्र सप्तशतानि च । पञ्चाशच्च महाभागा बभुः पूर्वधरास्तदा ॥ ७२ ॥ तावन्त्येव सहस्राणि शतं पञ्चाशतायुतम् । श्रुतस्य शिक्षकाः प्रोक्ताः संयताः संयताक्षकाः ॥७३॥ सहस्राणि नवाधीता मुनयोऽवधिलोचनाः । विंशतिस्ते सहस्राणि केवलज्ञानलोचनाः ॥७४॥ विंशतिस्ते सहस्राणि षट् शतानि च वैक्रियाः । विक्रियाशक्तियोगेन जयन्तः शक्रमप्यलम् ॥७५॥ द्वादशैव सहस्राणि तथा सप्तशतानि च । पञ्चाशञ्च युतास्तत्र मत्या विपुलया बभुः ॥७६ || तावन्त एव संख्याताः संख्ययासंख्य सद्गुणाः । जेतारो हेतुवादज्ञा वादिनः प्रतिवादिनाम् ||१७|| सपञ्चाशत्सहस्रास्ता शुद्धज्ञा बभुरायिकाः । श्राविकाः पञ्चलक्ष्यस्तास्त्रिलक्षाः श्रावकाश्च ते ||७८|| छद्मस्थकालनिर्मुक्तां पूर्वलक्षां जिनेश्वरः । विजहार महीं भव्यान् भवाब्धेस्तारयन् बहून् ।।७९।।
स्रग्धराच्छन्दः
इथं कृत्वा समर्थ मवजलधिजलोत्तारणे मावतीर्थं
कल्पान्तस्थायि भूयस्त्रिभुवनहितकृत् क्षेत्रतीर्थं स कर्त्तुम् । स्वाभाव्य दारुरोह श्रमणगणसुरवातसंपूज्यपादः
कैलासाख्यं महीधं निषधमिव वृषादित्य इद्धप्रमाढ्यः ||८०|| तस्मिन्नद्वौ जिनेन्द्रः स्फटिकमणिशिलाजालरम्ये निषण्णो
योगानां संनिरोधं सह दशभिरथो योगिनां यैः सहस्रैः । कृत्वा कृत्वान्तमन्ते चतुरपरमहाकर्मभेदस्य शर्म
स्थानं स्थानं स सैद्धं समगमदमलस्रग्धराभ्यर्च्य मानः ॥ ८१ ॥
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देवकी सभा में नाना प्रकारके गुणोंसे पूर्णं मुनियोंका सात प्रकारका संघ था ॥ ७१ ॥ उनमें चार हजार सात सौ पचास महाभाग तो पूर्बंधर थे ॥ ७२ ॥ | चार हजार सात सौ पचास मुनि श्रुत शिक्षक थे, ये सब मुनि इन्द्रियोंको वश करनेवाले थे || ७३ || नौ हजार मुनि अवधिज्ञानी थे, बीस हजार केवलज्ञानी थे, बीस हजार छह सौ विक्रिया ऋद्धिके धारक थे, मुनि अपनी विक्रिया शक्तिके योग से इन्द्रको भी अच्छी तरह जीतनेवाले थे, बीस हजार सात सौ पचास विपुलमति मन:पर्यय ज्ञानके धारक थे, बीस हजार सात सौ पचास ही असंख्यात गुणोंके धारक; हेतुवादके ज्ञाता तथा प्रतिवादियों को जीतनेवाले वादी थे, शुद्ध आत्मतत्त्वको जाननेवाली पचास हजार आर्यिकाएँ थीं, पाँच लाख श्राविकाएँ थीं और तीन लाख श्रावक थे ||७४-७८ ।। भगवान् की कुल आयु चौरासी लाख पूर्वं वर्षकी थी उसमें से छद्मस्थ कालके तेरासी लाख वर्ष पूर्वं वर्ष कम कर देनेपर एक लाख पूर्वं वर्ष तक उन्होंने अनेक भव्य जीवों को संसार सागर से पार करते हुए पृथिवीपर विहार किया T || ७९|| इस प्रकार मुनिगण और देवोंके समूहसे पूजित चरणोंके धारक श्रीवृषभ जिनेन्द्र, संसाररूपी सागरके जलसे पार करने में समर्थ रत्नत्रयरूप भाव तीर्थंका प्रवर्तन कर कल्पान्त काल तक स्थिर रहनेवाले एवं त्रिभुवन जनहितकारी क्षेत्र तीर्थंको प्रवर्तनके लिए स्वभाववश ( इच्छाके बिना ही ) कैलास पर्वतपर उस तरह आरूढ़ हो गये जिस तरह कि देदीप्यमान प्रभाका धारक वृषका सूर्यं निषधाचलपर आरूढ़ होता है ||८०|| स्फटिक मणिकी शिलाओंके समूहसे रमणीय उस कैलास पर्वत पर आरूढ़ होकर भगवान्ने एक हजार राजाओंके साथ योग निरोध किया और अन्तमें चार अघातिया कर्मोंका अन्त कर निर्मल मालाओंके धारक देवोंसे पूजित हो अनन्त
१. ४७५० । २.४१५० । ३. ९००० । ४. २०००० । ५.२०६०० । ६.१२७५० ।
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