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हरिवंशपुराणे पुत्राः षष्टिसहस्राणि तस्य दुर्ललितक्रियाः । परस्परमहाप्रीताः प्रत्याख्याताद्गु पूर्वकाः ॥२८॥ कृताष्टापदकैलासा दण्डरत्नेन ते क्षितिम् । मिन्दानाः कुपितेनामी नागराजेन मस्मिताः ॥२९॥ संसारस्थितिविच्चक्री पुत्रशोकमुदस्य सः । दीक्षित्वाजिननाथान्ते मोक्षमैन मुक्तबन्धनः ॥३०॥ ततः संभवनाथोऽभूत्ततोऽभूदभिनन्दनः । ततः सुमतिनाथश्च ततः पद्मप्रभो जिनः ॥३१॥ सुपाश्र्वश्च जिनेन्द्रोऽस्मात् ततश्चन्द्रप्रमः प्रभुः । पुष्पदन्तः परस्तस्मादशमः शीतलस्ततः ॥३०॥
शार्दूलविक्रीडितम् इक्ष्वाकुः प्रथमः प्रधानमुदगादादित्यवंशस्तत
स्तस्मादेव च सोमवंश इति यस्त्वन्ये कुरूप्रादयः । पश्चात् श्रीवृषमादभूदृषिगणः श्रीवंश उच्चस्तरा
मित्थं ते नृपखेचरान्वययुता वंशास्तवोक्ता मया ॥३३॥ शुद्ध श्रेणिक ! शीतलस्य दशमे तीर्थे वहत्युज्ज्वले
काले केवलदीपकोज्वलजगद्देवेन्द्र देवागमे । प्रोद्भूतः प्रकटप्रभावमहतां वंशो हरीणां यथा
वर्ण्यः सोऽपि मया तथा जिनपथे तथ्यो नृपाकर्ण्यताम् ॥३४॥ इत्यरिष्टने मिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती इक्ष्वाकुवंशवर्णनो नाम त्रयोदशः सर्गः ।
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चक्रवर्ती हुआ। यह अक्षीणनिधियों तथा रत्नोंका स्वामी था और भरत चक्रवर्तीके समान प्रसिद्ध था ॥२७॥ इसके अद्गुको आदि लेकर साठ हजार पुत्र थे। ये सभी पुत्र अद्भुत चेष्टाओंके धारक थे और परस्परमें महाप्रीतिसे युक्त थे ॥२८॥ किसी समय ये समस्त भाई कैलास पर्वतपर गये वहाँ आठ पादस्थान बनाकर दण्डरत्नसे वहाँकी भूमि खोदने लगे परन्तु इस क्रियासे कुपित होकर नागराजने सबको भस्म कर दिया ॥२९॥ चक्रवर्ती सगर संसारको स्थितिका ज्ञाता था इसलिए पुत्रोंका शोक छोड़ उसने अजितनाथ भगवान्के समीप दीक्षा धारण कर ली और कर्म-बन्धनसे छूटकर मोक्ष प्राप्त किया ॥३०।। तदनन्तर अजिननाथके बाद सम्भवनाथ, उनके बाद अभिनन्दन नाथ, उनके बाद सुमतिनाथ, उनके बाद पद्मप्रभ, उनके बाद सुपार्श्वनाथ, उनके बाद चन्द्रप्रभ, उनके बाद पुष्पदन्त और उनके बाद शीतलनाथ हुए ॥३१-३२॥ गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि हे श्रेणिक ! सर्व-प्रथम इक्ष्वाकु वंश उत्पन्न हुआ फिर उसी इक्ष्वाकुवंशसे सूर्यवंश और चन्द्रवंश उत्पन्न हुए। उसी समय कुरुवंश तथा उग्रवंश आदि अन्य अनेक वंश प्रचलित हुए। पहले भोगभूमिमें ऋषि नहीं थे परन्तु आगे चलकर भगवान् ऋषभदेवसे दीक्षा लेकर अनेक ऋषि उत्पन्न हुए और उनका उत्कृष्ट श्रीवंश प्रचलित हुआ। इस प्रकार मैंने तेरे लिए अनेक राजाओं और विद्याधरोंके वंशोंका कथन किया ।।३३।। अब जिस समय शीतलनाथ भगवान्का शुद्ध एवं उज्ज्वल दसवाँ तीथं बीत रहा था तथा केवलज्ञानरूपी दीपकसे उज्ज्वल,संसारमें इन्द्र और देवोंका आगमन जारी था ऐसे समय महाप्रभावके धारक हरियोंका जो वंश प्रकट हुआ था उसका
वंठा प्रकट दआ था उसका भी वर्णन करता हूँ। हे राजन् ! जिनमार्गमें इसका जो यथार्थ वर्णन है उसे तू श्रवण कर ॥३४||
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें
इक्ष्वाकुवंशका वर्णन करनेवाला तेरहवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥१३॥
१. अद्गुः इति ज्येष्ठपुत्रस्य नाम ।
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