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चतुर्दशः सर्गः
२२१ पाटलामोदसुभगां वनश्रीवनितामलम् । चक्रुः पुष्पवती फुल्लास्तिलकास्तिलकश्रियः ॥१७॥ जिगीषयेव विकसन्नागेसंहतिसंततेः । सिंहकेसरसिंहस्य केसरश्रीयं जम्भत ।।१८॥ मालतीवल्लभां मासश्चिरविश्लेषशोषिताम् । चकाराश्लेषपुष्टाङ्गी सद्यः पुष्पवती मधुः ॥१९।। हिन्दोलग्रामरागेण रक्तकण्ठाधरश्रियः । दोलाद्यान्दोलनक्रीडाव्यासक्ताः कोमलं जगुः ॥२०॥ उद्यानवनखण्डेषु तत्कालोचितमण्डनाः । स्त्रीसखाः केचिदाभेजुः प्रीत्या पानपरम्पराम् ॥२१॥ प्राग्दूर्वाङ्कुरमास्वाद्ये हरिण्यै हरिणो ददौ । तं सास्वाद्य ददौ तस्मै प्रियाघ्रातोऽपि हि प्रियः ॥२२॥ सल्लकीपल्लवोल्लासिकवलग्रासलालसाम् । स्वाननस्पर्शसौख्यान्धां चकार करिणी करी ।।२३।। मधुपानमदोन्मत्तमधुपद्वन्द्वमुत्स्वनम् । मधौ विजम्भितेऽन्योऽन्यं जिघ्रति स्म घनस्पृहम् ॥२४॥ कोकिलाकलकण्ठीनां गीतं श्रुत्वेव योषिताम् । चुकूज कोकिलस्तोषपोषी तस्य जिगोषया ॥२५।। मधुपैः परपुष्टश्च कलकोलाहलाकुलैः । गीयते स्म मधुर्यत्र तत्रान्येषु कथा नु का ॥२६॥
वाला ) था ॥१६।। उस समय तिलककी शोभाको धारण करनेवाले जो तिलकके फूल चारों ओर फूल रहे थे उन्होंने गुलाबकी सुगन्धिसे सुवासित वनलक्ष्मीरूपी स्त्रीको अत्यधिक पुष्पवतीफूलोंसे युक्त ( पक्षमें रजोधर्मसे युक्त ) कर दिया था ॥१७॥ जिस प्रकार इधर-उधर घूमते हुए हस्ति-समूहको जीतनेकी इच्छासे सिंहकी केशर ( अयाल ) सुशोभित होती है उसी प्रकार पुन्नागवृक्षोंके समूहको जीतनेकी इच्छासे सिंहकेशर - वृक्ष विशेषकी केशर सुशोभित हो रही थी ॥१८॥ जो चिरकालके विरहसे सूख रही थी ऐसी मालतीरूपी वल्लभाको चैत्र मासने अपने आलिंगनसे शीघ्र ही पुष्ट तथा पुष्पवती-फूलोंसे युक्त ( पक्षमें रजोधर्मसे युक्त ) बना दिया था। भावार्थजिस प्रकार कोई पुरुष चिरकालके वियोगसे कृश अपनो वल्लभाको आलिंगनसे पृष्ट कर पुष्पवती ( रजोधर्मसे युक्त) बना देता है उसी प्रकार चैत्रमासने चिरकालसे वियक्त सखी हई मालती लतारूपी वल्लभाको अपने आलिंगनसे पुष्ट तथा फूलोंसे व्याप्त कर दिया ।।१९।। उस समय रागपूर्ण कण्ठ और अतिशय लाल ओठोंको धारण करनेवाले स्त्री-पुरुष, झूला झूलनेकी क्रीड़ामें आसक्त हो हिन्दोल रागमें कोमल गान गा रहे थे ।।२०।। उस समयके अनुरूप वस्त्राभूषणोंको धारण करनेवाले कितने ही पुरुष अपनी स्त्रियोंके साथ बाग-बगीचोंमें बड़े प्रेमसे मद्यपान करते थे ॥२१।। हरिण दूबाके अंकुरका पहले स्वयं आस्वादन कर हरिणीके लिए देता था और हरिणी भी उसका आस्वादन कर हरिणके लिए वापस देती थी सो ठीक हो है क्योंकि प्रेमीजनोंके द्वारा सूंघी हुई भी वस्तु प्रिय होती है ।।२२।।
सल्लकी वृक्षके पल्लवोंका हरा-भरा ग्रास खाने में जिसकी लालसा लग रही थी ऐसी हस्तिनीको हस्तीने अपने मुखके स्पर्शसे समुत्पन्न सुखसे अन्धी कर दिया था-अपने स्पर्शजन्य सुखसे उसके नेत्र निमीलित कर दिये थे॥२३॥ उस समय वसन्तका विस्तार होनेपर मधुपान सम्बन्धी नशासे उन्मत्त हुए भ्रमर और भ्रमरियोंके जोड़े उच्च शब्द करते हुए तीव्र लालसाके साथ परस्पर एक दूसरेको सूंघ रहे थे॥२४॥ उस समय हर्षसे पुष्ट हुए कोकिल जहाँ-तहाँ मधुर शब्द कर रहे थे जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो कोकिलाओंके समान कलकण्ठी स्त्रियोंका गीत सुनकर उसे जीतनेकी इच्छासे ही शब्द कर रहे हों ।।२५।। आचार्य कहते हैं कि जहाँ मनोहर कोलाहलसे आकुल भ्रमर तथा कोकिल भी वसन्तके गीत गाते हैं वहाँ दूसरोंकी तो कथा ही क्या है? ॥२६॥
१. तिलकश्रिया म.। २. नागपुन्नागसंहतेः ख., म.। नागाः पुन्नागवृक्षा: पक्षे हस्तिप्रधानाः । ३. चैत्रमासः । ४. दोलाढ्यं म. । ५. -मासाद्य म.।
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